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बैगा जनजाति की हो नसबंदी नहीं होगी…!

यह थोड़ा अजीबोगरीब मामला है। वैसे तो सरकार यही चाहती है कि देश पर जनसंख्या का बोझ कम करने के लिए नसबंदी का चलन बढ़े और लोग हम दो और हमारे दो के सिद्धांत को अमल में लाएं, पर लोग हैं कि ईश्वर अल्लाह तेरो नाम पर नसबंदी को कम ही अपनाते हैं। लेकिन यहां छत्तीसगढ़ में मामला उलट गया है। यहां सरकार चाहती है कि बैगा जनजाति के लोग नसबंदी न करवाएं। सरकार ने बैगा जनजातियों के नसबंदी पर पूरी तरह से रोक लगा रखी है लेकिन बैगा जनजाति के लोग नसबंदी कराने पर आमादा नजर आते हैं. छत्तीसगढ़ में नसबंदी नहीं होती तो मध्य प्रदेश जाकर इस सरकारी कर्म को अंजाम दे आते हैं। आशीष कुमार अंशु की रिपोर्ट-
 

बैगा जनजाति की महिलाओं की नसबंदी पर रोक है....
बैगा जनजाति की महिलाओं की नसबंदी पर रोक है….

नसबंदी को लेकर अलग-अलग समय पर कई तरह के विवाद इस देश ने देखें हैं। नया मामला छतीसगढ़ का है, और यह मामला पिछले सभी मामलों से जुदा इसलिए है क्योंकि यहां नसबंदी करवाने वाले अपनी सहमति से नसबंदी करा रहे हैं, उनपर किसी तरह का सरकारी- गैर सरकारी दबाव नहीं है। फिर भी उनका नसबंदी कराना चर्चा की मांग करता है, चूंकि छतीसगढ़ के सरकारी कायदे में बैगाओं का नसबंदी कराने का यह काम गैर कानूनी है। छतीसगढ़ में कुछ जनजातियों की तेजी से घटती संख्या को देखते हुए 1998 में छतीसगढ़ की बैगा, अबूझमाड़, बिरहोर, पहाड़ी कोरवा और कमार समाज में नसबंदी को प्रतिबंधित कर दिया गया। लेकिन जब आप छतीसगढ़ में आदिवासी समाज के बीच घूम रहे होते हैं। वहां इस सरकारी आदेश का पालन होता नजर नहीं आता है। मुंगेली अस्पताल में बात करने पर चिकित्सक नसबंदी की बात स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए। जबकि पिछले ही साल एक बैगा महिला की नसबंदी का मामला इस जिले में उछला था। रुका अब भी कुछ नहीं है।
मुंगेली स्थित लोरमी प्रखंड के मजूराहा गांव में झनकी बैगा से बात हुई। झनकी चार लड़की और एक लड़के की मां है। जब इस बैगा परिवार से मिलना हुआ, झनकी बैगा के पति ज्ञान सिंह बैगा बाहर गए हुए थे। झनकी के अनुसार वह एक स्थानीय महिला के मार्फत ऑपरेशन कराने गई थी। नसबंदी करवाने के लिए मध्य प्रदेश से गाड़ी आई थी। उसे ले जाने के लिए। झनकी ने बताया उसे गोरखपुर (डिंडोरी) ले जाया गया और नसबंदी के बाद एक हजार रुपए भी मिले। वह रूपए वाली बात थोड़ा खुश होकर बताती है।
तीन लड़की और एक लड़के की मां किमकिम बैगा भी कुछ दिनों पहले ही नसबंदी कराके लौटी है। उसकी नसबंदी में पति पनका बैगा की सहमति शामिल है। किमकिम कहती है, चार बच्चे के बाद, पांचवा फिर छट्ठा। इससे सेहत भी गिरती है और बच्चों का देखभाल भी नहीं होता। किमकिम कहती है, बैगाओं से सरकार इतना स्नेह करती है तो बैगा बच्चों को सरकार गोद ले। फिर हमें जन्म देने में तकलीफ नहीं होगी। यदि हमारे पास खुद के खाने को नहीं है तो बच्चे को जन्म देकर मारने का हक भी हमारा नहीं है।
यह किस्सा झनकी बैगा और किमकिम बैगा तक सीमित नहीं है। थोड़ी जानकारी इकट्ठी करने की कोशिश की तो डुरवाडोगरी की सुकरिया बैगा समेत कई महिलाओं के नाम सामने आए। इसी प्रकार कमला बैगा, शांति बैगा, किसानीन बैगा, बिराजो बैगा, लामिया बैगा, सुकरिया बैगा, चकदा बैगा का नाम सामने आया। इन सभी नामों के साथ एक नाम बार बार आया, फगनी बैगा का। जिसने बैगा समाज के बीच शायद पहली नसबंदी कराई थी और दूसरी बैगा महिलाओं के लिए प्रेरणा बनी। फगनी ने यह नसबंदी अपने पति संजू बैगा के दबाव में कराया था। बकौल फगनी- ‘पति को पैसों की जरूरत थी। नसबंदी नहीं कराती तो तलाक तय था।’ इसके बाद नसबंदी करवाने की इच्छा रखने वाली महिलाओं की कतार लग गई फगनी के घर के बाहर। फगनी को भी महिलाओं की नसबंदी कराने पर कमिशन मिलता था।
सरकारी आंकड़ों में छतीसगढ़ में बैगाओं की संख्या 42,838 है। इनकी कम जनसंख्या सरकार के लिए चिन्ता का विषय है। इसलिए इनके विकास के लिए सरकार कई तरह की परियोजनाएं चला रही है। परियोजनाओं से बैगाओं का कितना लाभ हुआ, यह तो उस समाज के लोग ही बता सकते हैं। लेकिन मुंगेली में उनके गांव में जाने से बिल्कुल यह पता नहीं चलता कि इस समाज की सुध लेना छतीसगढ़ सरकार ने अपनी प्राथमिकता में रखा है। आज जब यह कह जाता है कि देश में शौचालय से अधिक मोबाइल हैं। कई बैगाओं के गांव में ना शौचालय मिलता है और ना मोबाइल का नेटवर्क। स्वास्थ की सुविधाओं की बात ही क्या करें? सरकार को समझना होगा कि सिर्फ नियम-कायदे बनाने से बात नहीं बनेगी, समय समय पर उसकी समीक्षा भी होनी चाहिए। वास्तव में पांच-छह बच्चों का लालन-पालन बैगा परिवार कहां से करेगा? क्या वे बच्चों को कुपोषित होकर मरने के लिए जन्म दें? ऐसे में सरकार को ही तय करना है कि वह क्या रास्ता हो, जिससे बैगाओं संख्या भी दुरुस्त रहे और बैगा परिवार भी तंदरुस्त रहे।
नोटः यह रिपोर्ट आशीष कुमार अंशु ने दो वर्ष पूर्व लिखी थी लेकिन आज भी प्रासंगिक है…
 

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