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स्वस्थ भारत के लिए जरूरी हैं खेल: प्रधानमंत्री

प्रधानमंत्री ने की फिट इंडिया मुहिम से जुड़ने की अपील

नई दिल्ली/27.05.18
भारत स्वस्थ हो इसके लिए सरकार बहुत सक्रीयता दिखा रही है। आज अपने मन की बात में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देशवासियों से फीट इंडिया मुहिम से जुड़ने की अपील। आइए पढ़ते हैं प्रधानमंत्री ने फिट इंडिया के लिए क्या कहा?
मेरे प्यारे देशवासियो और ख़ासकर के मेरे नौजवान दोस्तो ! अभी दो महीने पहले जब मैंने fit India की बात की थी तो मैंने नहीं सोचा था कि इस पर इतना अच्छा रिस्पॉस आएगा। इतनी भारी संख्या में हर क्षेत्र से लोग इसके सपोर्ट में आगे आएँगे। जब मैं फिट इंडिया की बात करता हूँ तो मैं मानता हूँ कि जितना हम खेलेंगे, उतना ही देश खेलेगा। सोशल मीडिया  पर लोग फिटनेस चैलेंज की विडीयो शेयर कर रहे हैं, उसमें एक-दूसरे को टैग कर उन्हें चैलेंज कर रहे हैं। Fit India के इस अभियान से आज हर कोई जुड़ रहा है। चाहे फिल्म से जुड़े लोग हों, खेल से जुड़े लोग हों या देश के आम-जन, सेना के जवान हों, स्कूल की टीचर हों, चारों तरफ़ से एक ही गूँज सुनाई दे रही है – ‘हम fit तो India fit’। मेरे लिए खुशी की बात है कि मुझे भी भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली जी ने चैलेंज किया है और मैंने भी उनके चैलेंज  को स्वीकार किया है। मैं मानता हूँ कि ये बहुत अच्छी चीज है और इस तरह का चैलेंज हमें fit रखने और दूसरों को भी fit रहने के लिए प्रोत्साहित करेगा ।
पारंपरिक खेलों को बढ़ाने है जरूरत
नोएडा की छवि यादव के सवाल का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि, ये बात सही है कि जो खेल कभी गली-गली, हर बच्चे के जीवन का हिस्सा होते थे, वे आज कम होते जा रहे हैं। ये खेल ख़ासकर गर्मी की छुट्टियों का विशेष हिस्सा होते थे। कभी भरी दोपहरी में, तो कभी रात में खाने के बाद बिना किसी चिंता के, बिल्कुल बेफिक्र होकर के बच्चे घंटो-घंटो तक खेला करते थे और कुछ खेल तो ऐसे भी हैं,जो पूरा परिवार साथ में खेला करता था – पिट्ठू हो या कंचे हो, खो-खो हो,लट्टू हो या गिल्ली-डंडा हो, न जाने…..अनगिनत खेल कश्मीर से कन्याकुमारी, कच्छ से कामरूप तक हर किसी के बचपन का हिस्सा हुआ करते थे। हाँ, यह हो सकता है कि अलग-अलग जगह वो अलग-अलग नामों से जाने जाते थे, जैसे अब पिट्ठू ही यह खेल कई नामों से जाना जाता है। कोई उसे लागोरी, सातोलिया, सात पत्थर, डिकोरी, सतोदिया न जाने कितने नाम हैं एक ही खेल के। परंपरागत खेलों में दोनों तरह के खेल हैं। out door भी हैं, indoor भी हैं। हमारे देश कीविविधताके पीछे छिपी एकता इन खेलों में भी देखी जा सकती है। एक ही खेल अलग-अलग जगह, अलग-अलग नामों से जाना जाता है। मैं गुजरात से हूँ मुझे पता है गुजरात में एक खेल है, जिसे चोमल-इस्तो कहते हैं। ये कोड़ियों या इमली के बीज या dice के साथ और 8×8 के square board के साथ खेला जाता है। यह खेल लगभग हर राज्य में खेला जाता था। कर्नाटक में इसे चौकाबारा कहते थे, मध्यप्रदेश में अत्तू। केरल में पकीड़ाकाली तो महाराष्ट्र में चम्पल, तो तमिलनाडु में दायाम और थायाम, तो कहीं राजस्थान में चंगापो न जाने कितने नाम थे लेकिन खेलने के बाद पता चलता है, हर राज्य वाले को भाषा भले न जानता हो – अरे वाह! ये खेल तो हम भी करते थे। हम में से कौन होगा, जिसने बचपन में गिल्ली-डंडा न खेला हो। गिल्ली-डंडा तो गाँव से लेकर शहरों तक में खेले जाने वाला खेल है। देश के अलग-अलग भागों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है। आंध्रप्रदेश में इसे गोटिबिल्ला या कर्राबिल्ला के नाम से जानते हैं। उड़ीसा में उसे गुलिबाड़ी कहते हैं तो महाराष्ट्र में इसे वित्तिडालू कहते हैं। कुछ खेलों काअपना एक season होता है। जैसे पतंग उड़ाने का भी एक season होता है। जब हर कोई पतंग उड़ाता है जब हम खेलते हैं, हम में जो unique qualities होती हैं, हम उन्हें freely express कर पाते हैं। आपने देखा होगा कई बच्चे, जो शर्मीले स्वभाव के होते हैं लेकिन खेलते समय बहुत ही चंचल हो जाते हैं। ख़ुद को express करते हैं, बड़े जो गंभीर से दिखते हैं, खेलते समय उनमें जो एक बच्चा छिपा होता है, वो बाहर आता है। पारंपरिक खेल कुछ इस तरह से बने हैं कि शारीरिक क्षमता के साथ-साथ वो हमारी logical thinking, एकाग्रता, सजगता, स्फूर्ति को भी बढ़ावा देते हैं। और खेल सिर्फ खेल नहीं होते हैं, वह जीवन के मूल्यों को सिखाते हैं। लक्ष्य तय करना, दृढ़ता कैसे हासिल करना!, team spirit कैसे पैदा होना, परस्पर सहयोग कैसे करना। पिछले दिनों मैं देख रहा था कि Business Management से जुड़े हुए training programmes में भी overall personality development और interpersonal skills के improvement के लिए भी हमारे जो परंपरागत खेल थे, उसका आजकल उपयोग हो रहा है और बड़ी आसानी से overall development में हमारे खेल काम आ रहे हैं और फिर इन खेलों को खेलने की कोई उम्र तो है ही नहीं। बच्चों से ले करके दादा-दादी, नाना-नानी जब सब खेलते हैं तो यह जो कहते हैं न generation gap,अरे वो भी छू-मंतर हो जाता है। साथ-ही-साथ हम अपनी संस्कृति और परम्पराओं को भी जानते हैं। कई खेल हमें समाज, पर्यावरण आदि के बारे में भी जागरूक करते हैं।
पारंपरिक खेल खोने की चिंता…
प्रधानमंत्री ने खत्म हो रहे पारंपरिक खेलों पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि, खेलों कभी-कभी चिंता होती है कि कहीं हमारे यह खेल खो न जाएँ और वह सिर्फ खेल ही नहीं खो जाएगा, कहीं बचपन ही खो जाएगा और फिर उस कविताओं को हम सुनते रहेंगे –
यह दौलत भी ले लो
यह शौहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी
यही गीत हम सुनते रह जाएँगे और इसीलिए यह पारंपरिक खेल, इसको खोना नहीं है। आज आवश्यकता है कि स्कूल, मौहल्ले,युवा-मंडल आगे आकर इन खेलों को बढ़ावा दें। crowd sourcing के द्वारा हम अपने पारंपरिक खेलों का एक बहुत बड़ा archive बना सकते हैं। इन खेलों के videos बनाए जा सकते हैं, जिनमें खेलों के नियम, खेलने के तरीके के बारे में दिखाया जा सकता है। Animation फ़िल्में भी बनाई जा सकती हैं ताकि हमारी जो नई पीढ़ी है, जिनके लिए यह गलियों में खेले जाने वाले खेल कभी-कभी अज़ूबा होता है – वह देखेंगे, खेलेंगे, खिलेंगे।
 

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