स्वस्थ भारत मीडिया
आयुष / Aayush नीचे की कहानी / BOTTOM STORY

आप जानते हैं होम्योपैथी का इतिहास…!

 
homiyo pathy
Dr. R.Kant For Swasthbharat.in
भारत में बहुत कम ही लोग जानते है कि होम्योपैथी एक सफ़ल चिकित्सा पद्धति है,जानकारी के आभाव में होम्योपैथी को अधूरी चिकित्सा पद्धति मानकर लोग आधुनिक चिकित्सा पद्धति की ओर आकर्षित होते हैं। आखिर हो भी क्यों न, होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति को लेकर कई भ्रातिंया देश मे फ़ैली है, और इस भ्रान्ति को दूर करने के लिये न तो सरकार और ना ही किसी संस्था द्वारा कोई मुकम्म्ल प्रयास किया गया। इसके गुणों को भी इसके चिकित्सकों द्वारा प्रचारित नही किया गया।
सबसे पहले मैं आप सब को होम्योपैथी चिकित्सा के इतिहास के बारे मे कुछ जानकारी देता हूं। इस चिकित्सा पद्धति को भारत में विस्तार कैसे मिला इस पर भी चर्चा जरूरी है।
होम्योपैथी का इतिहास : होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति एक जर्मन चिकित्सक डॉ. क्रिशिच्यन फ़्रेडरिक सैमुअल हैनिमेन द्वारा आरंभ की गई थी। डॉ. हैनिमेन को 1779 में इरलानजेन विश्वविद्यालय द्वारा एम.डी. की डिग्री से सम्मानित किया गया था। उन्होंने अपनी चिकित्सा का अभ्यास शुरू किया परंतु उस समय की अधूरी एवं अस्पष्ट चिकित्सा ज्ञान से वे असंतुष्ट थे, इस प्रकार के अवैज्ञानिक चिकित्सा उपचार से हतोत्साहित होकर उन्होंने अपनी डॉक्टरी अभ्यास छोड़ दी।  डॉक्टरी अभ्यास छोड़ने के बाद बहुमुखी प्रतिभा और कई भाषाओं के जानकार होने के कारण कई विज्ञान और चिकित्सा संबंधी पुस्तकों का अंग्रेजी भाषा से अन्य भाषाओं में अनुवाद किया। डॉ. क्यूलेन लंदन यूनिवर्सिटी में चिकित्सा के प्राध्यापक थे और उन्होंने मैटेरिया मेडिका में लगभग 20 पेज सिनकोना की छाल के औषधीय गुण के बारे मे लिखा है,1790 में जब डॉ हैनिमैन डॉ. क्यूलन की मैटेरिया मेडिका जो कि अंग्रेजी मे थी उसका अनुवाद जर्मन भाषा में कर रहे थे, तभी डॉ. हैनिमैन  का ध्यान सिनकोना की छाल के औषधीय गुण के बारे में गया और उन्होंने पाया कि यह औषधि मलेरिया के उपचार में उपयोगी है। इसके बाद डॉ. हैनिमैन ने यह जानने के लिये कि उसका असर कैसे और किस प्रकार होता है उन्होंने खुद कुछ दिनों तक सिन्कोना का रस दिन मे दो बार लिया और उन्हें इस बात ने अचंभित किया कि उनको मलेरिया बुखार के लक्षणों के समरुप ही लक्षणों ने प्रहार किया ,इस अप्रत्यासित नतीजे ने उन्हें प्रोत्साहित किया और इसके बाद कई शोध डॉ. हैनिमैन ने किये और “समानता के नियम” के विचार पर गहन अध्ययन किया और 1796 में आरोग्य के नियम (लॉ ऑफ क्योर) SIMILIA SIMILIBUS CURENTURE की सार्वजनिक घोषणा की।
1805 और 1810 में होम्योपैथी के सिद्धांत पर आधरित पुस्तक Medicine of Experiences और  Organon of Rational Art of Healing का प्रकाशन हुआ। जिसमें होम्योपैथी कि विधियां, धारणाओं पर स्पष्टीकरण के साथ उल्लेख था। इन दोनों पुस्तकों के प्रकाशन के बाद आधुनिक चिकित्सकों द्वारा काफ़ी विरोध होना शुरू हो गया लेकिन डॉ हैनिमैन बिल्कुल भी हतोत्साहित नहीं हुए और अपने कार्य को जारी रखा,और मैटेरिया मेडिका के कुल 8 संस्करण प्रकाशित हुए।
1821 में तमाम विरोधों के बीच कोइथेन के ड्यूक फ़र्दिनांद ने डॉ हैनिमैन को कोइथेन में रहने और होम्योपैथ का अभ्यास की इजाजत दी और इसी जगह से डॉ. हैनिमैन सभासद भी चुने गये।
1835 में डॉ. हैनिमैन फ़्रांस गए और अपनी पत्नी के प्रभाव से उन्हें पेरिस मे होम्योपैथ के अभ्यास कि अनुमति मिल गई, डा हैनिमैन को नाम, प्रसिद्धि, पैसा, और शांति पेरिस में ही मिली।
डॉ. हैनिमैन लागातार शोध कार्य मे व्यस्त रहे वे अंतिम सांस तक चिकित्सा प्रणाली में सुधार लाते रहने का प्रयास करते रहे जिससे कि अस्वस्थ जीवन को सरलता से उपचार मिलता रहे। डा हैनिमैन की यात्रा का अंत 2 जुलाई 1843 को प्रात: 5 बजे हुआ।
भारत में होम्योपैथी का विस्तार : पंजाब के किंग महाराजा रणजीत सिंह के  ईलाज के लिये भारत मे सबसे पहले होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति का प्रयोग भारत में हुआ। इसकी सफलता देखकर पश्चिम बंगाल में इस पद्धति पर व्यवस्थित काम शुरू हुआ और धीरे-धीरे अब पूरे भारत में इस पद्धति का फैलाव हुआ। भारत में 1971 मे होम्योपैथिक फ़ार्माकोपिया बना और भारत सरकार ने होम्योपैथी को 1972 में मान्यता दे दी। उसके बाद केन्द्रीय होम्योपैथी परिषद और केन्द्रीय अनुसंधान परिषद की भी स्थापना की गई।
परिचयः(सिम्पैथी संस्था के निदेशक डॉ आर.कांत होमियोपैथी पद्धति के प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।)
संपर्क- simpathyc79@gmail.com, 91-9911009198

Related posts

सीडीआरआई की वैज्ञानिक परीक्षण सुविधा को मिला भरोसे का प्रमाण पत्र

Ashutosh Kumar Singh

संविदा कर्मी भी इन्सान हैं …

Ashutosh Kumar Singh

सकारात्मकता के दीप से हारेगा कोरोना

Ashutosh Kumar Singh

Leave a Comment