आज कुष्ठ उन्मूलन दिवस है। गांधी की पुण्य तिथि को भारत सरकार एंटी लिपरेसी डे के रूप में मनाती है। गांधी ने अपने चंपारण प्रवास के दौरान कुष्ठ रोगियों की बहुत सेवा की थी। तब किसानो से जबरन नील की खेती कराई जाती थी। नील की खेती के साइड अफेक्ट के रूप में किसानों को कुष्ठ रोग होने लगा था। इसकी जानकारी गांधी को कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में मिली थी। फिर उन्होंने निश्चय किया था कि वो चंपारण से ही अपनी लड़ाई शुरू करेंगे। इस संदर्भ में डॉ. देबाशीष बोस का यह लेख बहुत ही सार्थक सूचना लेकर आया है। जरूर पढ़ें। संपादक
चम्पारण आन्दोलन गांधीजी का मानव शोषण के खिलाफ नफरत, स्वच्छ और स्वास्थ्य संवेदनाओं को उजागर करता है। लेकिन आजाद भारत में गांधी के उत्तराधिकारियों ने उनके सपनों को साकार करने का अब तक ईमानदार प्रयास नहीं किया और शोषण के खिलाफ कई कानून तो बने परन्तु स्वास्थ्य का अधिकार और इससे संबंधित स्वस्थ्य नीति का इस देश में आज भी सर्वथा अभाव है।
महात्मा गांधी के सत्याग्रह, स्वच्छ और स्वास्थ्य के संबंध में उनकी अवधारणाओं को जानने के लिये चम्पारण आंदोलन का विशेष महत्व हैा गांधी ने चम्पारण सत्याग्रह से चम्पारण वासियों को नील की खेती करने पर मजबूर करने वाले जमींदारों के आतंक तथा शोषण से मुक्ति दिलाई वहीं स्वच्छता और स्वास्थ्य के प्रति लोगों को जागरूक कर अपनी अवधारणाओं को प्रतिपादित किया। यह स्वतंत्रता इतिहास का स्वर्णिम अध्याय का सृजन करता है।
अंग्रेजों ने एक लाख एकड़ से भी अधिक उपजाउ भूमि पर कब्जा कर लिया था और उन पर अपनी कोठियां स्थापित कर ली थी। ये लोग खुरकी और तीन कठिया व्यवस्था के द्वारा किसानों पर तरह-तरह के जुल्म बरपाते और उनका शोषण करते थे। खुरकी व्यवस्था के तहत अंग्रेज रैयतों को कुछ रूपये देकर कुल जमीन और घर आदि जरपेशगी रख कर उन्हीं से जीवन पर्यन्त नील की खेती कराते थे। इसी प्रकार तीन कठिया व्यवस्था के तहत किसानों को अपने खेत के प्रत्येक बीघा के तीन कठ्ठे के उपर नील की खेती करनी पड़ती थी। इसमें खर्च रैयतों का होता था और बगैर मुआवजा दिये नील अंग्रेज ले जाते थे। इतना ही नहीं अनेक तरह के टैक्स उनसे वसूले जाते थे। हजारों भूमिहीन मजदूर तथा गरीब किसान खाद्यान की बजाय नील की खेती करने के लिए बाध्य हो गये थे। उपर से बगान मालिक भी जुल्म ढा रहे थे।
इस शोषण की मार से चम्पारण के किसानों के बच्चे शिक्षा-स्वास्थ्य की मूलभूत सुविधाओं से वंचित थे। किसान शरीर से दुर्वल और बीमार रहते थे। नील के किसान क्षय रोग के शिकार हो रहे थे। गांधीजी चम्पारण की हालत सुनकर हतप्रभ हो गये और वहां चलकर लोगों को सत्याग्रह के माध्यम से आंदोलित करने का निर्णय लिया। अप्रैल 1917 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन होने के बाद गांधीजी कलकत्ता से चम्पारण आये और किसानों के आंदोलन का नेत़त्व संभाला। उनके दर्शन के लिए हजारों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। किसानों ने गांधीजी को अपनी सारी समस्याएं बताई।
गांधीजी के आंदोलन से चम्पारण की पुलिस भी हरकत में आई। पुलिस अधीक्षक ने गांधीजी को जिला छोड़ने का आदेश दिया। गांधीजी ने आदेश मानने से इंकार कर दिया। अगले दिन गांधीजी को कोर्ट में हाजिर होना था। हजारों किसानों की भीड़ कोर्ट के बाहर जमा थी। गांधी के समर्थन में नारे लगाये जा रहे थे। हालात की गंभीरता को देखते हुए दण्डाधिकारी ने बगैर जमानत के गांधीजी को मुक्त करने का आदेश दिया। लेकिन गांधीजी ने कानून के अनुसार सजा की मांग की। फैसला स्थगित कर दिया गया। इसके बाद गांधीजी किसानों को आंदोलित और जागरूक करने के लिए निकल पड़े।
गांधीजी ने किसानों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए ग्रामीण विद्यालय खुलवाया। लोगों को साफ सफाई से रहने का तरीका सिखाया गया। सारी गतिविधियां गांधीजी के आचरण से मेल खाती थी। स्वयंसेवकों ने मैला ढोने, धुलाई, झाडू-बुहारू तक का काम किया। स्वास्थ्य जागरूकता का पाठ पढाते हुए लोगों को उनके अधिकारों का ज्ञान कराया गया। ताकि किसान स्वस्थ रह सकें और अपने में रोग प्रतिरोधक क्षमता को विकसित कर सकें।
चम्पारण आंदोलन को देखते हुए लेफि़टनेन्ट गवर्नर एडवर्ड ने गांधीजी को बुलावा पत्र भेजा और एफ स्लर्ड की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया जिसमें गांधीजी को भी सदस्य बनाया गया। जांच-पड़ताल के बाद इस आयोग ने सर्वसम्मति से प्रतिवेदन तैयार कर सरकार को सौंप दी। सरकार ने रपट के आधार पर कानून बनाया जिसके जरिये तीन कठिया प्रथा गैरकानूनी करार दी गयी। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि-‘ चम्पारण का यह दिन मेरी जिन्दगी में ऐसा था जो कभी भुलाया नहीं जा सकता, जहां मैंने ईश्वर का, अहिंसा का और सत्य का साक्षात्कार किया।’
गांधीजी ने स्वच्छ और स्वस्थ रहने के संदर्भ में कहा था कि हमें अपने संस्कारों और विधियों को नहीं भूलना चाहिए। स्वच्छ रहकर ही हम स्वस्थ्य रहेंगे। इसके पालन से ही मानव स्वस्थ्य रह सकेगा। उन्होंने कहा था कि हमारे संस्कार हमें प्रकृति के करीब लाता है लेकिन हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं और उसी का परिणाम है कि हम लगातार बीमारियों के जाल में फंसते जा रहे हैं। उन्होंने बल देते हुए कहा था कि अगर हम स्वास्थ्य चाहते हैं तो हमें फिर से पुरानी परंपराओं में छिपे स्वास्थ्य के मंत्रों को अपने जीवन में उतारना होगा। गांधीजी के अवधारणाओं को उनके उत्तराधिकारी आजादी के लगभग सात दशक गुजर जाने के बावजूद भी सरजमीन पर नहीं उतार पाए। लिहाजा लोगों को जहां स्वास्थ्य का अधिकार प्राप्त नहीं है वहीं यह क्षेत्र बुनियादी सुविधाओं से महफूज है और जीवन रक्षक दवाएं भी महंगी खरीदनी पड़ रही हैं। जिसे रोक पाने में सरकारें अब तक असफल रही है। इसके लिए फिर से एक बार नये कलेवर के साथ गांधी के ‘चम्पारण आंदोलन’ की आवश्यकता हैा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
इनसे bosemadhepura@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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