स्वस्थ भारत मीडिया
दस्तावेज / Document नीचे की कहानी / BOTTOM STORY

NMC-2017: स्वास्थ्य शिक्षा की बदलेगी तस्वीर…

 

NMC-BILL-2017

सवा अरब आबादी वाले भारत की स्वास्थ्य सेवाओं को सुचारू रुप से चलाने के लिए जिस व्यवस्था की जरूरत आज महसूस की जा रही है, उसको पूरा करने के लिए सरकार राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक-2017 (एनएमसी बिल-2017) ला रही है। संसद के इसी सत्र में इस विधेयक को लोकसभा में प्रस्तुत किया गया था। विधायी प्रक्रिया के अनुरूप यह विधेयक अब स्थाई समिति के पास है। इसी साल के बजट सत्र में इस पर अंतिम निर्णय होने की संभावना है। भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार की दिशा में इस बिल को क्रांतिकारी बताया जा रहा है।
 
गौरतलब है कि स्वास्थ्य शिक्षा किसी भी देश के स्वास्थ्य व्यवस्था को सुचारू रुप से चलाने के लिए जरूरी घटक होता है। स्वास्थ्य व्यवस्था को गतिमान बनाने के लिए एक ऐसी विधायी व्यवस्था की जरूरत होती है जो समय के साथ-साथ कदम ताल मिलाए। यही सोचकर सरकार ने एनएमसी बिल जल्द से जल्द पास कराना चाहती है। ऐसा नहीं है कि भारत में इस बिल के पहले स्वास्थ्य शिक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं रही है। 6 दशक पहले भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम,1956 के अंतर्गत मेडिकल कॉउंसिल ऑफ इंडिया का गठन किया गया था। इसके ऊपर देश की चिकित्सा सेवा एवं व्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय मानको के अनुरूप रखने की जिम्मेदारी थी। लेकिन कालांतर में यह संस्था भ्रष्टाचार के गिरफ्त में आ गई और मेडिकल कॉलेजों से ऐसे लोग पास होकर निकलने लगे, जिनकी चिकित्सकीय योग्यता कटघरे में रही। हद तो उस समय हुई जब इस संस्था का अध्यक्ष एक मेडिकल कॉलेज को मान्यता देने के बदले घुस लेने के आरोप में सीबीआई के हाथों पकड़ा गया। 23 अप्रैल, 2010 का वह दिन एमसीआई के इतिहास का काला दिन साबित हुआ। उस दिन अध्यक्ष केतन देसाई के संग-संग एमसीआई का ही एक पदाधिकारी जेपी सिंह एवं उक्त मेडिकल कॉलेज का प्रबंधक भी गिरफ्तरा हुआ। एमसीआई भ्रष्टाचार की कहानियां मीडिया में खूब सूर्खियों में रही। दूसरी ओर देश के कोने-कोने से एमसीआई को भंग करने की मांग की जाने लगी। आगे चलकर एमसीआई को भंग करना पड़ा। और आज यह कहानी आईएमसी अधिनियम-1956 की जगह एनएमसी बिल,2017 के रूप में अपने अंतिम निष्कर्ष की ओर है।
 
एमसीआई से एनएमसी तक का सफर
 
आइएमसी अधिनिमय-1956 के तहत गठित एमसीआई का बुरा दौर उसके अध्यक्ष केतन देसाई के गिरफ्तारी से शुरू हो चुका था। जब इसका गठन किया गया था तब विचार यही था कि यह संस्था देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर करेगी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। एमसीआई की भ्रष्ट स्थिति को देखते हुए 15 मई, 2010 को भारत सरकार को भारतीय चिकित्सा परिषद (संसोधन) अध्यादेश लेकर आना पड़ा। इसके तहत 1 साल के लिए आइएमसी एक्ट,1956 को स्थगित करते हुए बोर्ड ऑफ गवर्नर्स (बीओजी) के हाथों एमसीआई का प्रबंधन दे दिया गया। एमसीआई की प्रबंधकीय बॉडी को नए सिरे से बनाने के लिए 14 मई 2013 तक यानी 3 वर्षों का समय इस अध्यादेश के माध्यम से दिया गया। इस दौरान सरकार ने बीओजी की कार्यावधि को 2011-12 में लगातार दो वर्षों तक बढ़ाती रही ताकि एमसीआई के लिए नया अधिनियम बनाया जा सके। इस बीच नेशनल कमिशन फॉर ह्यूमन रिसोसर्स फॉर हेल्थ (एनसीएचआरसी), एक ऐसी नियामक संस्था जो एमसीआई सहित देश की पूरी स्वास्थ्य शिक्षा एवं व्यवस्था को नियमन कर सके, बनाने की कोशिश की गई, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी।
14 मई, 2013 को बीओजी का कार्यकाल खत्म होने के पूर्व मार्च 2013 में  सरकार आइएमसी (संसोधन) विधेयक-2013 लेकर आई। लेकिन बजट सेशन के कारण इसे संसद पटल पर नहीं लाया जा सका। और दूसरी तरफ बीओजी का कार्यकाल सरकार ने 6 महीने के लिए और बढा दिया। कुछ बदलाव के साथ 19 अगस्त 2013 को आइएमसी (संसोधन) विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया। लेकिन यहां भी इसे पास नहीं करावाया जा सका। 16 सितंबर, 2013 के अध्यादेश के बाद 28 सितंबर 2013 को सरकार ने आईएमसी (संसोधन) अध्यादेश-2 लेकर आई। जिसके बाद 6 नवंबर 2013 को एमसीआई फिर से काम करने लगी। लेकिन एमसीआई पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप एवं मेडिकल शिक्षा की अव्यवस्था की चर्चा मीडिया में हमेशा होती रही।
23 सितंबर 2015 को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मामलो की संसदीय स्थायी समिति ने एमसीआई संबंधित मामले के परिक्षण करने का निर्णय लिया। इस विषय पर सभी पक्षों, हितधारकों की बात सुनने के बाद 8 मार्च 2016 को 92वां राज्यसभा को संबंधित रिपोर्ट प्रस्तुत किया गया। इस रपट में भारत में मेडिकल शिक्षा को लेकर मूल-चूल बदलाव करने का सुझाव दिया गया। इसी बीच
एमसीआई को भंग करने की मांग
7 अगस्त 2016 को नीति आयोग ने भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 की प्रासंगिकता पर अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट में एमसीआई की विफलता की पूरी कहानी बयां की गई। और एमसीआई को भंग करने के लिए कई कारणों को समिति ने सुझाया। जिनमें मुख्य निम्न हैं-
 

  • भारत के जरूरत के हिसाब से उपयुक्त चिकित्सकों का उत्पादन करने वाले पाठ्यक्रम बनाने में विफल रही है एमसीआई।
  • स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर पर मेडिकल शिक्षा हेतु समान मानक बनाने विफल रही है एमसीआई।
  • निजी मेडिकल संस्थानों में प्रवेश लेने वाले छात्रों की योग्यता में गिरावट दर्ज की गई है। यह भी एमसीआई की विफलता है।
  • एक मजबूत गुणवत्ता आश्वासन तंत्र को स्थापित करने में एमसीआई विफल रही है।
  • मेडिकल कॉलेज के निरीक्षणों की पारदर्शी प्रणाली बनाने विफल रही है एमसीआई
  • निरीक्षण के दौरान अवसंरचना और छोटी-मोटी गड़बड़ियों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करना, लेकिन कौशलयुक्त शिक्षा, प्रशिक्षण एवं दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान केन्द्रित न करके उसका सही मूल्यांकन करने में विफल रही है एमसीआई।

इतना ही नहीं संसदीय स्थाई समिति को भेजे अपने रिपोर्ट में कमिटि ने कहा कि वर्तमान परिस्थिति में आईएमसी एक्ट, 1956 के अधिन चल रही एमसीआई स्वास्थ्य शिक्षा की मौजूदा चुनौतियों का सामना करने में असमर्थ हो चुकी है। आउटडेटेड हो गई है। इसमें संसोधन कर के भी बहुत कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है। इसे मूल रुप से ही बदलने की जरूरत है।
 
सर्वोच्च न्यायलय का एमसीआई मामले में फैसला

माननीय सर्वोच्च न्यायलय ने 2 मई, 2016 के सिविल अपील संख्या-4060 (मोडर्न डेंटल कॉलेज एंड रिसर्च सेंटर एवं अन्य बनाम मध्यप्रदेश एवं अन्य) के मामले में निर्देश दिया कि रंजीत रॉय चौधरी समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए जरूरी कदम सरकार उठाए। संविधान के अनुच्छेद 142 में निहित शक्ति का प्रयोग करते हुए न्यायालय ने एक अंतरिम निगरानी समिति का गठन किया और कहा कि यह समिति एमसीआई की कार्य-प्रणाली का निरिक्षण करेगी और अंतिम निर्णय विधायी स्तर पर होगा।
इस संदर्भ में सरकार ने पहले ही निति आयोग के वाइस चेयरमैन अरविंद पनगढ़िया की देखरेख में 28 मार्च, 2016 को एक कमिटि का गठन कर दिया था, जिसे इंडियन मेडिकल काउंसिल एक्ट, 1956 के सभी आयामों की समीक्षा कर अपना सुझाव देनी थी। इस समिति में प्रधानमंत्री के अतिरिक्त मुख्य सचिव पी.के. मिश्रा, निति आयोग के सीइओ अमिताभ कांत, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के सचिव बीपी शर्मा को शामिल किया गया था। इस कमिटि ने भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम-1956, आइएमसी (संसोधन) बिल-2013, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मामलों का संसदीय स्थाई समिति का 60वां एवं 92वां रिपोर्ट, एनसीएचआरएच बिल-2011, स्व.रंजीत रॉय चौधरी की अध्यक्षता में बनी एक्सपर्ट समूह की रिपोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट का सिविल अपील संख्या 4060 पर दिए गए निर्णय को पढ़ने-समझने के बाद अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी।
 
एक्सपर्ट समिति एवं हितधारकों के विचार
एमसीआई की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए प्रो. रंजीत रॉय चौधरी की अध्यक्षता में एक कमेटि बनी थी। उस कमेटी के सदस्यों एवं सभी हितधारकों ने मुख्यतः जो बाते कहीं उसे संक्षेप आप भी जानें…

  • वर्तमान चिकित्सा शिक्षा स्वास्थ्य सेवा देने में असफल हो चुकी है। पाठ्यक्रम को और बेहतर बनाने की जरुरत है।
  • मेडिकल सिटों के बढाए जाने की जरूरत है। साथ ही ऐसी व्यवस्था बने की गरीब परिवार का बच्चा भी मेडिकल शिक्षा प्राप्त कर सके।

 

  • जिला अस्पतालों को मेडिकल कॉलेज के रूप में बदला जाना चाहिए। निजी क्षेत्र के बड़े अस्पतालों को भी स्नातकोत्तर स्तर की चिकित्सा शिक्षा देने का अधिकार दिया जाना चाहिए। इससे ढाचागत विकास पर खर्च किए बिना पीजी सीटों में इजाफा हो सकेगा। पीजी डिग्री लेने के लिए दिए जाने वाले कैपीटेशन फी में कटौती हो सकेगी।

 

  • संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रैक्टिस कर रहे चिकित्सकों को फैकल्टी के रूप में छात्रों को प्रशिक्षण देने का अधिकार है लेकिन भारत में जाने-माने सर्जन एवं फिजिशियन को फैकल्टी के रुप में नहीं स्वीकार किया जाता है।

 

  • वर्तमान में समानान्तर दो पोर्ट ग्रेजुएट कोर्स (एमडी/एमएस) एमसीआई द्वारा एवं डिप्लोमा इन नेशनल बोर्ड (डीएनबी) नेशनल बोर्ड ऑफ इक्जामिनेशन द्वारा चलाए जा रहे हैं। इन दोनों पीजी के कोर्स को एक में सम्मिलित कर देना चाहिए और नेशनल बोर्ड ऑफ इक्जामिनेशन द्वारा परीक्षा कराया जाना चाहिए। इसका फायदा यह होगा कि पीजी का प्रशिक्षण पूरी तरह से निःशुल्क हो सकेगा और अस्पताल सभी पीजी छात्रों को प्रशिक्षण के दौरान सैलरी भी देंगे। सेलेक्शन प्रक्रिया में अस्पतालों की कोई भूमिका नहीं रहेगी। पूरी तरह से मेधा के आधार पर चिकित्सकों का चयन होगा।
  • इसके लिए कोई मैनेजमेंट कोटा नहीं होगा और न ही कोई कैपीटेशन फी देने की जरूरत होगी।

 

  • राष्ट्रीय मेडिकल रजिस्टर में रजिस्टर होने के पूर्व एक इक्जिट परीक्षा कराया जाना चाहिए। जो पास करेगा उसी को चिकित्सा करने की अनुमति होगी।

 

  • विदेशों में पढ़े हुए छात्रों को भी भारत में प्रैक्टिस करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। इसके लिए जेनरल मेडिकल काउंसिल बनाया जा सकता है। इस संबंध में यूके की व्यवस्था को अध्ययन करने की जरूरत है।
  • एमसीआई अधिनियम पुराना हो चुका है इसे नए अधिनियम से बदलने की जरूरत है।

 

  • एक राष्ट्रीय स्तर पर अपिलीय प्राधिकरण बनाने की जरूरत है, जो राज्य स्तरीय नियामकों से संबंधित शिकायतों का निस्तातरण कर सके।

 
राष्ट्रीय मेडिकल आयोग पर विचार
एमसीआई मसले पर अपनी राय देने के लिए जुलाई 2014 में (स्व.) प्रो. रंजीत रॉय चौधरी की अध्यक्षता में एक एक्सपर्ट कमिटि का गठन किया गया था। इस कमिटि ने संसदीय स्थाई समिति को फरवरी 2015 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में एक्सपर्ट कमिटि ने नेशनल मेडिकल कमिशन (एनएमसी) को नए अधिनियम के तहत बनाने का सुझाव दिया था। इस कमिशन को कार्यकरण के हिसाब से चार भागों में बांटने का सुझाव भी समिति ने दिया। इसी सुझाव को मानते हुए सरकार ने एनएमसी बिल-2017 को संसद में प्रस्तुत भी किया है। केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री जे.पी. नड्डा ने एनएमसी-बिल के प्रावधानों के बारे में चर्चा करते हुए 22 दिसंबर, 2017 को लिखे अपने पत्र कहा कि सरकार राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक, 2017 को पेश करने जा रही है। इसके तहत सरकार एक राष्ट्रीय चिकित्सा परिषद का गठन करेगी, जो चिकित्सा सेवा, चिकित्सा शिक्षा, चिकित्सा व्यवसाय एवं संबंधित सभी पहलुओं पर काम करेगा। इसमें चार स्वायत बोर्ड होगा। एक सलाहकार परिषद होगी। सभी पैथियों के चिकित्सकों के लिए एक राष्ट्रीय रजिस्टर होगा। निम्न चार स्वायत्त बोर्डों का गठन किया जायेगा।
(i) स्नातक स्तर पर शिक्षा और मानकों का निर्धारण करने के लिए एवं चिकित्सा को नियंत्रित करने के लिए अंडर-ग्रेजुएट मेडिकल शिक्षा बोर्ड होगा।
(ii) स्नातकोत्तर स्तर पर शिक्षा और मानकों का निर्धारण करने के लिए एवं
मेडिकल को विनियमित करने के लिए स्नातकोत्तर मेडिकल शिक्षा बोर्ड होगा।
(iii) चिकित्सा संस्थानों का मूल्यांकन और निरीक्षण करने के लिए मेडिकल आकलन और रेटिंग बोर्ड होगा।
(iv) चिकित्सा, चिकित्सकों और चिकित्सा के बीच चिकित्सकीय नैतिकता के अनुपालन के लिए नैतिकता और चिकित्सा पंजीकरण बोर्ड का गठन किया जायेगा।
इस बिल में उपरोक्त सभी प्रावधान वैसे ही हैं जैसा कि (स्व.) प्रो. रंजीत रॉय चौधरी समिति ने अपनी रपट में सुझाया था।
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग का गठन
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग 25 सदस्यों का एक समूह होगा जिसमें में एक अध्यक्ष, बारह पदेन सदस्य, ग्यारह अंशकालिक सदस्य  तथा एक पूर्व सदस्य सचिव होंगे। एनएमसी का स्थाई सचिवालय होगा जो कि बेहतरीन पेशेवर कर्मियों से सुसज्जित होगा। इस सचिवालय में एमसीआई का कोई भी पुराना कर्मचारी नहीं होगा।
राष्ट्रीय प्रवेश और निकास परीक्षा
श्री रंजित रॉय चौधरी कमिटि की रिपोर्ट के आधार पर संसद में पेश किए गये एनएमसी बिल में कहा गया है कि मेडिकल संस्थानों में अंडर-ग्रेजुएट और पोस्ट-ग्रेजुएट कोर्स के प्रवेश के लिए सामान्य प्रवेश परीक्षा को एक वैधानिक आधार प्रदान किया जायेगा। अंडर ग्रेजुएट मेडिकल डिग्री के पूरा होने के बाद भी चिकित्सा पेशेवरों द्वारा अभ्यास के लिए एक आम निकास परीक्षा ली जायेगी।
शुल्क नियमन
एनएमसी निजी मेडिकल कॉलेजों के शुल्क नियंत्रण में ज्यादा दखल नहीं देगी। जरूरत पड़ी तो वो 40 फीसद तक सिटों की फी रेगुलेट कर सकती है।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का विरोध
 

एनएमसी बिल जब संसद में पेश किया जा रहा था तब इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के आह्वान पर पूरे देश के एलोपैथिक चिकित्सक हड़ताल पर चले गए थे।12 घंटे तक यह हड़ताल रही। जब सरकार ने इस बिल को संसद के स्थाई समिति के पास भेज दिया जो कि एक स्वाभाविक विधायी प्रक्रिया है, तब जाकर चिकित्सकों ने अपना हड़ताल वापस लिया। इस बावत आइएमए के पूर्व अध्यक्ष डॉ. के.के अग्रवाल ने एनएमसी बिल पर अपना विरोध दर्ज कराते हुए अपने फेसबुक वाल पर 15 मिनट का एक वीडियो संदेश प्रसारित किया है। उसमें उन्होंने कहा है कि इस बिल में मनोनित सदस्य 80 फीसद और चयनित सदस्यों की संख्या 20 फीसद है, यह लोकतंत्र के मूल आत्मा के खिलाफ है। एनएमसी में प्रस्तावित चारों बोर्ड में कोई भी चयनित पदाधिकारी नहीं है। एमसीआई को मरीज एवं डाक्टर कोई भी अपनी शिकायत कर सकता था लेकिन एनएमसी में केवल मेडिकल प्रोफेशनल ही अपनी शिकायत दर्ज करा सकते हैं। स्वास्थ्य राज्य का मुद्दा है, लेकिन इस बिल में एक सेंट्रल रजिस्टर बनाने का प्रस्ताव है। साथ ही सरकार ब्रिज कोर्स कराकर आयुष चिकित्सकों को मॉडर्न पैथी का इस्तेमाल करने की छूट देने जा रही है। इसका विरोध हम करते हैं। विदेशी चिकित्सकों को भारत में प्रैक्टिस करने की इजाजत दी जा रही है। यदि उन्हें इजाजत देना है तो प्रोपर स्क्रीनिंग टेस्ट होना चाहिए, लेकिन ऐसा प्रावधान मौजूदा बिल में नहीं है। जहां तक मेडिकल कॉलेजों पर पेनाल्टी लगाने का प्रश्न है तो इसमें भी भ्रष्टाचार का पूरा स्कोप है। निजी मेडिकल कॉलेजों के फी को सरकार (अपटू) 40 फीसद तक कैप कर सकती है। 40 फीसद रहता तो भी हमें कोई आपत्ति नहीं होती लेकिन यहां पर अपटू 40 फीसद का मतलब 1 फीसद भी हो सकता है, 10 फीसद भी हो सकता है। इन तमाम मुद्दों पर हमारा विरोध है। इस बिल में बहुत सी अच्छी बाते भी हैं लेकिन फिलहाल जिन बिन्दुओं पर सुधार की जरुरत है, उसे हम स्टैंडिंग कमेटि के सामने रखेंगे।
आइएमए के विरोध को निराधार बताते हुए वरिष्ठ स्वास्थ्य पत्रकार धनन्जय कहते हैं कि, “नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) बिल देश की चिकित्सा शिक्षा के सुधार की दिशा में उठाया गया एक बेहद प्रगतिशील कदम है। मरीजों के हितों की रक्षा के लिए एक ईमानदार एवं पारदर्शी चिकित्सा नियंत्रक का होना सबसे पहली जरुरत है। मौजूदा   मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया (एमसीआई) कितनी सड़ गल गई है यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है। इनके कारनामों का ही हश्र है कि कोर्ट से इसे भ्रष्टाचार की मांद की संज्ञा मिल चुकी है। एमसीआई से देश को जितनी जल्दी हो सके मुक्ति मिलनी चाहिए। इसके रहते न ही मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता ही सुनिश्चत हो सकती है और न ही डाक्टरी पेशे की सुचिता। एक्जिट टेस्ट शिक्षा की गुणवत्ता के लिए रामवाण साबित होगा।”वरिष्ट न्यूरो सर्जन डॉ. मनीष कुमार मानते हैं कि, “आज गांवों में कोई भी एमबीबीएस चिकित्सक जाने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे में अगर आयुष चिकित्सकों को सरकार ब्रिज कोर्स कराकर उन्हें स्वास्थ्य सेवा की बेहतरी में लगाना चाहती है तो किसी को आपत्ति क्यों होना चाहिए। गांव में ऐसे चिकित्सकों की जरूरत हैं जो जिला अस्पतालों पर पड़ने वाले कार्य-बोझ को कम कर सकें। बीएएमस करने वाले छात्र की आक्यू एमबीबीएस का कोर्स करने वाले छात्र से कमजोर होगी, ऐसा मानना न्यायसंगत नहीं है। एनएमसी की एक अच्छी बात यह है कि इसके प्रबंधन में इलेक्टेड कम लोग होंगे। इससे इलेक्शन के नाम पर जो गंध मचती थी, वो रुक जायेगी। एमसीआई आज अपने कारण ध्वस्त होने जा रही है, इसे हो भी जाना चाहिए। जरुरत है देश को बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था की। इसकी पूरी कोशिश सरकार ने इस बिल में की है। जो कमी होगी उसे आगे दूर किया जा सकता है।”
इस बिल में प्रस्तावित ब्रिज कोर्स और राष्ट्रीय रजिस्टर को लेकर सबसे ज्यादा विरोध हो रहा है। आयुर्वेद की चिकित्सक दिब्या श्रीवास्तव जो कि आयुष चिकित्सकों की ओर से आवाज बुलंद कर रही हैं उनका कहना हैं कि, “मैं ब्रिज कोर्स के पक्ष में हूँ। आयुष के अंतर्गत आने वाले डॉक्टर्स को भी एलोपैथ के डॉक्टर्स के समकक्ष अवसर मिलनी चाहिए। विशेषकर सर्जरी की, क्योंकि आयुर्वेद ही शल्य चिकित्सा का जनक है। और आयुष चिकित्सक सर्जरी करने में सक्षम हैं। उन्हें किसी भी सुविधा, साधन, सर्जरी, नौकरी से वंचित न किया जाए। चिकित्सकों को हर प्रकार से समानता का अधिकार मिले।” जबकि उनकी बात के उलट वेदांता आयुर्वेद के सीइओ डॉ. रामनिवास पराशर का मानना हैं कि, “ब्रिज कोर्स के दुरुपयोग की आशंका ज्यादा है। आयुर्वेद अपने आप बहुत पोटेंशियल वाली पैथी है यदि शिक्षा का स्तर एवं सुविधा को अपग्रेड कर दिया जाए। जरुरत इस बात की है कि यूजी लेवल पर कुछ क्रेडिट सर्टिफिकेट कोर्स सभी पैथियों के लिए शुरू किए जाएं। आयुष चिकित्सक को आधुनिक चिकित्साशास्त्र के कुछ विषय की पढाई करनी चाहिए जिससे उन्हें बीमारी को डाग्नोस करने में सहुलियत मिले लेकिन वे अपनी पैथी से ही ईलाज करें। यहीं बेहतर स्थिति होगी।”वहीं दूसरी ओर जोधपुर के चिकित्सक डॉ. दिनेश शर्मा कहना हैं कि, “यह बिल भिन्न-भिन्न चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों को सड़क पर लड़वाने और एक दूसरे को नीचा दिखाने में सफल हो रही है। देश का स्वास्थ्य किसी भी रूप में इससे नहीं सुधरने वाला हैं जबकि सरकार के पास अभी इससे बेहतर कोई तात्कालीन योजना नहीं हैं यह दुःखद पहलू हैं।”
निष्कर्ष
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम-2017 को जिसने ठीक से पढ़ा है, वह कह सकता हैं कि यह बिल स्वास्थ्य शिक्षा में बदलाव की दिशा में लाया गया एक सार्थक कदम है। इसमें कुछ कमियां निश्चित रुप से हैं लेकिन उसे भी समय के साथ-साथ दूर तो किया ही जा सकता हैं। बेहतर यह होता कि सरकार यह बताती की किस रोग का ईलाज किस पैथी में बेहतर है। उसके हिसाब से रोगों को पैथियों के हिसाब से वर्गीकृत कर देती। इससे सभी पैथियों को आगे बढ़ने का भी मौका मिलता और लोगों को सही ईलाज भी।
 
किसने क्या कहा?
 

दिब्या श्रीवास्तव, आयुर्वेद चिकित्सक

“मैं इस ब्रिज कोर्स के पक्ष में हूँ। आयुष के अंतर्गत आने वाले डॉक्टर्स को भी एलोपैथ के डॉक्टर्स के समकक्ष अवसर मिलनी चाहिए। विशेषकर सर्जरी की, क्योंकि आयुर्वेद ही शल्य चिकित्सा का जनक है। और आयुष चिकित्सक सर्जरी करने में सक्षम हैं। उन्हें किसी भी सुविधा, साधन, सर्जरी, नौकरी से वंचित न किया जाए। चिकित्सकों को हर प्रकार से समानता का अधिकार मिले।”
 
 

रवि एल बरासकर, मेडिकल ऑफिसर, महाराष्ट्र शासन

 

हम ब्रिज कोर्स के पक्ष में है। चिकित्सा के क्षेत्र में रुग्णहित को सर्वोपरी मानना चाहिए। एलोपैथी चिकित्सकों द्वारा इसका विरोध अन्य पैथी के बारे में  उनकी अज्ञान, श्रेष्ठत्व का अहंकार और व्यावसायिक स्पर्धा के भय के कारण है। रुग्णहित और जन आरोग्य से उन्हे कोई भी सरोकार नही है। आयुष डॉक्टर्स ग्रामीण दुर्गम एवं गरीब मध्यम वर्गीय शहरी तबको में सेवा देते हैं अत: व्यावसायिक स्पर्धा का कोई सवाल ही नहीं है। ब्रिज कोर्स केवल आयुष डॉ को न देकर सभी को देना चाहिए। ताकि अन्य पैथी और अपनी विरासत का सभी को परीचय। हो ,अनुसंधान के नये द्वार खुले और रुग्णहित व्यापक हो।

 
 
 

अमीत श्रीवास्तव, पूर्व अध्यक्ष फार्मासिस्ट फाउंडेशन

क्रॉसपैथी की इजाजत किसी भी स्थित में समाज के लिए हितकर नही हो सकता। दवाएं वरदान हैं यदि उनका सही प्रयोग हो। और सही प्रयोग तभी संभव है जब सही एवं सुरक्षित हाथों से उसका नियंत्रित प्रयोग हो। अंग्रेजी दवा के फायदा एक तो हज़ार नुकसान है, इसलिए कोई भी छोटी चूक एक बड़ा हादसा पैदा करता है। डब्लूएचओ की रपट के अनुसार भारत मे प्रति व्यक्ति एंटीबॉयोटिक का प्रयोग बहुत ज्यादा है। सामान्य बीमारियों में जहां एंटीबायोटिक्स की जरूरत तक नही होती वहां हम हाई मोलेइक्यूल्स की एंटीबायोटिक्स का प्रयोग कर रहे हैं। क्रॉसपैथी की इजाजत देने से बेहतर यह है कि सभी पैथी के चिकित्सक अपनी-अपनी पैथी में बेहतर इलाज करें।

 

डॉ. दिनेश शर्मा, जोधपुर, राजस्थान

आज इंसान को क्या चाहिए ? मेरा प्रश्न स्वास्थ्य को लेकर हैं , अच्छी और सस्ती स्वास्थ्य सेवा ,यही न  देश मे स्वास्थ्य संबंधी सबसे बड़ी चुनौतियें क्या हैं ? वो बीमारियें जिनसे हम प्रतिदिन चपेट में आते हैं , मौसमी , संक्रामक , मच्छर जनित ,सभी वर्गों में ,फिर बच्चों में टीकाकरण के अभाव की बीमारियें , फेंफड़े की तकलीफ जिसमे श्वांस की बीमारी से लगा साधारण खांसी ,आधुनिक युग की असंक्रामक बीमारियें यथा बीपी शुगर ह्रदय लकवा आदि क्या स्वास्थ्य विज्ञान सरल विषय हैं ? नहीं ना ,जब स्वास्थ्य का बिगड़ना एक जटिल प्रक्रिया हैं तब इसे समझना फिर उसका निवारण सब कुछ जटिल विषय हैं ,जिसमे मानव ज्ञान के साथ मशीनों का जटिल योग आज के स्वास्थ्य व्यवस्था में आवश्यक हो चुकी हैं , तब कौन से वे लोग हैं जिन को स्वास्थ्य की जिम्मेवारी दी जाय , वे ही ना जो योग्य हैं , मेहनती हैं ,तार्किक हैं , जिन्होंने विषय के अ को सीख अ: सीखा हैं और क को सीखते हुए ज्ञ तक पहुंचे हैं , क्या ये विषय सिर्फ चार दवाइयों के नाम जान भर लेना ही हैं ? इससे आगे और पीछे कुछ नहीं चाहिए क्या ?? आपको ये पता हो कि क्लोरोक्वीन मलेरिया की गोली बस अब आप मलेरिया के डाक्टर हो गए यही ना अब आपको कोई जरूरत नहीं कि आप मच्छर मलेरिया उसके परजीवी का जीवन चक्र उसकी स्थितियें और उसके प्रभाव दुष्प्रभाव उसका जानना उसके भिन्न जटिलताओं को पहचानना फिर निराकरण करना ,क्या ये हजार जानकारियें बेवकूफी हैं क्या एक मात्र रोग को समझने के लिए , इस देश मे स्वास्थ्य विभाग का चपरासी से लगा किसी भी सुपरस्पेशलिटी विभाग के हेड तक किसी केमिस्ट से लगा भुक्तभोगी मरीज तक सभी डाक्टर हैं सभी अपने आप मे अंतिम ज्ञाता हैं सभी परिपूर्ण हैं इनमें से किसी को भी दूसरे की जरूरत नहीं होती ये अधिकांस देखा जाता हैं । देश को क्या जरूरत हैं ? गर्भवती की देखभाल सुरक्षित मातृत्व , सुरक्षित प्रसव ,नवजात की उचित देखभाल , उसका टीकाकरण , बचपन की बीमारियों का उचित निराकरण , मानसिक शारीरिक रोगों की उचित पहचान निदान इलाज , देश की आबादी में महाविस्फोट के बुरे परिणाम सामने आ चुके हैं, हमारी नीतियों ने इस भीड़ को स्वास्थ्य देने की कभी तैयारी नहीं की थी। अब गले की फांस बनी स्वास्थ्य सेवाओं ने हमें पैबंद लगाने के लिए यानी फ़टे को सिलकर अच्छा बनाने की प्रेरणा दी हैं, एनएमसी बिल आज चर्चा में है। यह बिल भिन्न-भिन्न चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों को सड़क पर लड़वाने और एक दूसरे को नीचा दिखाने में सफल हो रही है। देश का स्वास्थ्य किसी भी रूप में इससे नहीं सुधरने वाला हैं जबकि सरकार के पास अभी इससे बेहतर कोई तात्कालीन योजना नहीं हैं यह दुःखद पहलू हैं।
 
धनन्जय, वरिष्ठ स्वास्थ्य पत्रकार

नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) बिल देश की चिकित्सा शिक्षा के सुधार की दिशा में उठाया गया एक बेहद प्रगतिशील कदम है। मरीजों के हितों की रक्षा के लिए एक ईमानदार एवं पारदर्शी चिकित्सा नियंत्रक का होना सबसे पहली जरुरत है। मौजूदा   मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया (एमसीआई) कितनी सड़ गल गई है यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है। इनके कारनामों का ही हश्र है कि कोर्ट से इसे भ्रष्टाचार की मांद की संज्ञा मिल चुकी है। एमसीआई से देश को जितनी जल्दी हो सके मुक्ति मिलनी चाहिए। इसके रहते न ही मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता ही सुनिश्चत हो सकती है और न ही डाक्टरी पेशे की सुचिता। एक्जिट टेस्ट शिक्षा की गुणवत्ता के लिए रामवाण साबित होगा।

 

डॉ. मनीष कुमार, विभागाध्यक्ष, न्यूरो सर्जरी विभाग, पार्क अस्पताल, गुड़गांव

 

आज गांवों में कोई भी एमबीबीएस चिकित्सक जाने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे में अगर आयुष चिकित्सकों को सरकार ब्रिज कोर्स कराकर उन्हें स्वास्थ्य सेवा की बेहतरी में लगाना चाहती है तो किसी को आपत्ति क्यों होना चाहिए। गांव में ऐसे चिकित्सकों की जरूरत हैं जो जिला अस्पतालों पर पड़ने वाले कार्य-बोझ को कम कर सकें। बीएएमस करने वाले छात्र की आक्यू एमबीबीएस का कोर्स करने वाले छात्र से कमजोर होगी, ऐसा मानना न्यायसंगत नहीं है। एनएमसी की एक अच्छी बात यह है कि इसके प्रबंधन में इलेक्टेट कम लोग होंगे। इससे इलेक्शन के नाम पर जो गंध मचती थी, वो रुक जायेगी। एमसीआई आज अपने कारण ध्वस्त होने जा रही है, इसे हो भी जाना चाहिए। जरुरत है देश को बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था की। इसकी पूरी कोशिश सरकार ने इस बिल में की है। जो कमी होगी उसे आगे दूर किया जा सकता है।

 
 

डॉ. रामनिवास परासर, सीइओ, वेदांता आयुर्वेद

ब्रिज कोर्स के दुरुपयोग की आशंका ज्यादा है। आयुर्वेद अपने आप बहुत पोटेंशियल वाली पैथी है यदि शिक्षा का स्तर एवं सुविधा को अपग्रेड कर दिया जाए। जरुरत इस बात की है कि यूजी लेवल पर कुछ क्रेडिट सर्टिफिकेट कोर्स सभी पैथियों के लिए शुरू किए जाएं। आयुष चिकित्सक को आधुनिक चिकित्साशास्त्र के कुछ विषय की पढाई करनी चाहिए जिससे उन्हें बीमारी को डाग्नोस करने में सहुलियत मिले लेकिन वे अपनी पैथी से ही ईलाज करें। यहीं बेहतर स्थिति होगी।
 

 

Related posts

हरियाणा की छह बालिकाएं बनेंगी स्वस्थ् बालिका स्वस्थ समाज का गुडविल अम्बेसडर

Ashutosh Kumar Singh

किशोरों से अपेक्षाओं का बोझ कम करने की दरकार

admin

16,000 children under 5 years old die each day

Ashutosh Kumar Singh

2 comments

Dr.Sanju kirar January 23, 2018 at 4:09 pm

NMC BILL पास होना चाहिये ये आम जनता के हित मे है
क्योकी हर एक व्यक्ति महेगी बड़ी फिस देकर अपने परिवार का ईलाज नही करवा सकता है बहूत से लोगो कि जान उल्टी दस्त मे हि चली जाती है

Reply
swasthadmin January 25, 2018 at 9:14 am

जी जरूर

Reply

Leave a Comment