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रोग-शोक जनि देहु विधाता

आपबीती

दुष्ट संग जनि देहु विधाता…तुलसी दास की इस पंक्ति की तर्ज पर मैं कहता हूं कि पैसे नहीं हैं तो हे विधाता रोग ना दो..किसी हादसे का शिकार न बनाओ…

उमेश चतुर्वेदी

दर्द क्या होता है...जिसपर बितती है, वही बता सकता है...
दर्द क्या होता है…जिसपर बितती है, वही बता सकता है…

ठीक एक साल पहले …3 नवंबर 2014..वक्त करीब सवा ग्यारह बजे..दिल्ली के हौजखास मेट्रो स्टेशन का प्लेटफार्म…गेट नंबर दो की तरफ से उतरते वक्त नजर पड़ी…जहांगीरपुरी जाने वाली मेट्रो आ चुकी है…प्लेटफार्म सिर्फ तीन सीढ़ियां नीचे रह गया था.. कदम थोड़ा तेज बढ़ा दिया..लेकिन इसी बीच हल्की-सी सीढ़ियों की रेलिंग से टक्कर हुई..शरीर ने संतुलन खोया और धड़ाम…ट्रेन का दरवाजा महज एक फीट दूर रहा…ट्रेन के अंदर से च्च-च्च की महिला आवाज आई..लेकिन मेट्रो रूकती कहां है..तेजी से प्लेटफार्म से बाहर निकल गई..बायें हाथ में चोट तो बड़ी थी…लेकिन तब तक इतना महसूस नहीं हुआ कि ज्यादा गड़बड़ है..संभलने और खुद को खड़ा करने में दो मिनट निकट गए और नई ट्रेन प्लेटफार्म पर हाजिर…दफ्तर की देर ना हो..लिहाजा लपक कर ट्रेन में चढ़ लिए…यह भुलाते हुए कि बाएं हाथ की कलाई में दर्द तेज है और हथेली घुमाने पर कड़-कड़ की आवाज निकल रही है..ट्रेन में चढ़ने के बाद जैसे दर्द का तेज बगुला उठा…धड़कनें बढ़ गईं…ट्रेन में पूरी तेजी से चलते एयर कंडिशनर के बावजूद पसीने से शरीर भीगने लगा..लगा अगले ही पल बेहोश हो जाएंगे…बैठने की सीट मिली नहीं थी..शरीर पर अपना नियंत्रण खत्म होता जा रहा था…आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा…लगा अब खड़ा नहीं रहा जाएगा…तब तक ग्रीन पार्क स्टेशन आ गया..ग्रीन पार्क पर हिम्मत बांधकर उतर गया…उतरते ही सामने प्लेटफार्म की छत को थामने वाले खंभे से लगी गोल सीट दिखाई दी..उस पर जाकर पसीने से भीगा अपना शरीर डाल दिया और पता ही नहीं चला कि क्या हुआ….
बेहोशी के बाद करीब आधे घंटे बाद आंख खुली..तब तक चोट लगे बाएं हाथ की कलाई सूज कर कुप्पा हो चुकी थी…उंगलियां हिलाने तक में दर्द हो रहा था..पसीने से शरीर तर-बतर था..मेट्रो का दावा है कि प्लेटफार्म के कोने-कोने पर क्लोजसर्किट टीवी कैमरे से निगाह रखी जाती है..लेकिन कम से कम मुझको लेकर मेट्रो का यह दावा फुस्स रहा..उन पैंतीस-चालीस मिनटों में मेट्रो के किसी कर्मचारी की मुझ पर निगाह नहीं पड़ी…दिल्ली में वैसे ही नफासत की सभ्यता आदमी से आदमी को दूर कर देती है..इसलिए इस भागती दिल्ली में किसे फुर्सत पड़ी है कि प्लेटफार्म पर गिरे एक शख्स पर निगाह डाले..निगाह तो उस दफ्तर के दोस्तों ने भी नहीं डाली…जहां करीब डेढ़ साल से तब तक कम से कम रोजाना आठ से नौ घंटे गुजार रहे थे…फिर अगल-बगल गुजरने वाले यात्रियों से भला क्यों उम्मीद की जाए…
रहीम का एक दोहा बड़ा मशहूर है…रहिमन विपदा हू भली जो थोड़े दिन होय / हित-अनहित वा जगत में जानि परत सब कोय. हाथ टूटने के बाद इस दोहे का मर्म कहीं ज्यादा गहराई से समझ आया.. लेकिन सबसे हैरतनाक अनुभव हुआ अस्पताल में..जब थोड़ी-बहुत चेतना लौटी तो बांए हाथ को दाएं हाथ में दोबारा मेट्रो पर चढ़ गया और अगले स्टेशन यानी एम्स पर उतर गया..तब तक मुझे पता नहीं था कि एम्स का ट्रॉमा सेंटर और सामने स्थित सफदरजंग के स्पोर्ट्स इंजुरी सेंटर में बेहतर इलाज की सहूलियत है..लेकिन इतना जरूर पता था कि सफदरजंग का हड़्ड़ी विभाग बढ़िया है..लिहाजा सफदरजंग के आपातकालीन वार्ड में पहुंच गया..निजी सुरक्षा एजेसियों के जिन सुरक्षाकर्मियों की दिल्ली के बड़े से बड़े दफ्तरों के गेट पर कायदे से जुबान नहीं खुलती..वैसे गार्ड सफदरजंग के आपातकालीन सेवा के दरवाजे पर बिल्कुल बेहूदी भाषा में आने-जाने वालों से उलझते हैं..आप घायल हैं तो क्या हुआ..आप से पांच-सात सवाल जरूर पूछे जाएंगे…दर्द के मारे बिलबिलाता आदमी क्या करेगा, सिवा उनके उल-जलूल सवालों का तसल्ली से जवाब देने के..उस वक्त मैं भी भूल गया कि पत्रकार हूं…शायद यह भी आभास था कि पत्रकारिता की जानकारी देने के बाद भी अगर पूछ न बढ़ी तो अलग भद पिटेगी..लेकिन गार्डों से भी ज्यादा तकलीफदेह अनुभव इमर्जेंसी वार्ड में हड् के लिए तैनात डॉक्टर का व्यवहार रहा..तीन नवंबर 2014 की उस दोपहर उस डॉक्टर ने दर्द देख पर्ची तो लिख दी..लेकिन लगे हाथ कड़े शब्दों में ताकीद कर दिया- इस दर्द से मर नहीं जाओगे और जाओ एक्सरे कराकर लाओ…बिना एक्सरे कराए यहां आए तो भगा दूंगा…मर नहीं जाओगे…उम्र में कम से कम दस साल छोटे उस डॉक्टर को बातचीत का सामान्य शऊर तक नहीं था..उस वक्त तक अकेले थे..लिहाजा अपमान का कड़वा घूंट पीकर चुपचाप एक्सरे कराने वाली जगह पर चला गया..
एक्सरे करने वाली लड़की का स्वभाव अच्छा था..उसने एक्सरे करके रिपोर्ट दिलवा दी..एक्सरे लेकर उसी डॉक्टर के यहां लौटा..उसने एक्सरे देखा और कहा..बुरी तरह फ्रैक्चर हो गया है..हड्डी वार्ड जाओ और उसके पहले खिड़की नंबर छह पर पर्ची बनवा लो…सफदरजंग में छह नंबर की खिड़की पूछने पर हर कर्मचारी का टका-सा जवाब था..उधर देखो..सफदरजंग में आदमियत की घोर कमी है..इंसानियत तो दूर की बात है…यह बात और है कि खिड़की नंबर छह पर तैनात कर्मचारी थोड़ा नरम स्वभाव के थे..उन्होंने मेरी ओर देखा और पूछा, साहब कैसे हो गया..मैंने बता दिया तो बोला..उपर वाले की माया है..
इससे भी कहीं ज्यादा क्रूर अनुभव का आगे रहा..हड्डी वार्ड में गए तो ज्यादातर पढ़ने वाले सीनियर डॉक्टर वहां बैठे थे..उन्होंने एक्सरे देखा..एक-दो दवाएं लिख दी और बगल के कमरे में रखे प्लास्ट ऑफ पेरिस की पट्टियां और एक कोने में रखी रूई खुद ही उठाकर ले जाने का फरमान सुना दिया.. फिर प्लास्टर रूम में भेज दिया..प्लास्टररूम क्या है..गंदगी का स्टोररूम..सामान्य व्यक्ति भी वहां चला जाए तो उसकी तबियत खराब हो जाए…वहां रोगियों की भीड़ लगी थी..लोग डॉक्टर और टेक्निशियन का इंतजार कर रहे थे..टेक्निशियन आया और उसने एक रोगी का प्लास्टर चढ़ाया और लौट गया.. इसके बाद वह ऐसे गायब हुआ..जैसे गधे के सिर से सींग..उसके बाद घंटों तक कोई नजर नहीं आया..करीब ढाई या तीन बजे एक लड़की डॉक्टर जिनका नाम शायद ज्योति था और दूसरा एक और डॉक्टर आया…दोनों संभवत: चौथे या तीसरे साल के मेडिकल के छात्र थे..लड़का डॉक्टर ने मेरा एक्सरे देखा तो मुझे एक किनारे बैठा दिया..दो-तीन रोगियों का प्लास्टर चढ़ाने के बाद फिर मुझे बुलाया..वहां एक गंदा सा स्ट्रेचर पड़ा था..उसी पर सीधे लेटा दिया..फिर मेरा एक्सरे कमरे की छत की दीवार में प्रकाश के सामने खोंस दिया..वहां से देखकर मेरा हाथ पकड़ने के लिए दो लोगों को बुलाया..दोनों से मेरा हाथ दो सिरों से पकड़ने को कहा और फिर एक्सरे में देखते हुए खिसकी हुई हड्डियों को खींचने लगा..लगा प्राण निकल जाएंगे..मेरा हाथ पकड़े लोगों को धमकाता भी रहा..हाथ उसके बताए कोण से हिला तो उन्हें बाहर कर देगा..वे लोग अस्पताल के कर्मचारी नहीं थे..बल्कि रोगियों के तीमारदार थे..डॉक्टर ने इस पूरी प्रक्रिया के दौरान कोई एनिस्थिसिया आदि नहीं दिया..देता भी क्यों..उसका सहपाठी पहले ही इमरजेंसी वार्ड में कह चुका था कि दर्द से मर नहीं जाओगे…टूटी कलाई की हड्डियों को खींचते वक्त लगा जैसे प्राण निकल गए..आंखों के सामने से चिंगारियां निकलने लगीं..दर्द के मारे बेहोशी की हालत जैसी हो गई…लेकिन हड़्डियों के दर्द से कोई मर थोड़े ही जाता है..लिहाजा नवेले डॉक्टरों के चेहरे पर कोई तनाव नहीं था..उन्हें पता जो था कि प्राण इससे नहीं निकलने वाले.. बहरहाल इस पूरी प्रक्रिया के दौरान महसूस हुआ कि अपनी सरकारी अस्पताल व्यवस्था कितनी सड़ी हुई है..कितनी बेदर्द है और कितनी अमानवीय है…तब महसूस हुआ कि अब ओखल में भगवान ने   सिर डालने के लिए कह दिया है तो मूसलों की चोट सह लो और आगे बढ़ जाओ…कल से देखा जाएगा…दर्द की असहनीय लहरियों के बीच कच्चा प्लास्टर कराकर निकला तो लगा जैसे पीछा छूटा.. तब तय किया कि सफदरजंग अस्पताल में लौटना ही नहीं है..देश बदलने का सपना दिखाकर सत्ता में आए नरेंद्र मोदी की नाक के नीचे इक्कीसवीं सदी में एक अस्पताल इतना भी अमानवीय हो सकता है..यह सोच-सोचकर दिमाग झन्ना जाता था..हालांकि सफदरजंग का यह अनुभव अपने राम को पहली बार नहीं हो रहा था..
ठीक नौ साल पहले के दिन याद आ गए..तब छोटी बेटी महज दो ही महीने की थी..उसकी गर्दन पर दाईं ओर कंधे से उपर गिलट थी..लिजलिटी उस गिलट को डॉक्टर चिकित्सा की भाषा में सिस्टिक हाईग्रोमा कहते थे..उसका इलाज सभी डॉक्टर ऑपरेशन बताते थे…लेकिन किसी के कहने पर सफदरजंग के बाल सर्जरी विभाग में चला गया..सरकारी दफ्तर की सिफारिश पर पहले पहुंचा था सफदरजंग के प्रशासनिक खंड के प्रमुख के पास..तब कोई सरदार जी थे प्रशासनिक प्रमुख..उन्होंने बाल सर्जरी विभाग के प्रमुख के पास भिजवाया। वे छपरा के कोई सिंह थे..उन्होंने तो ऐसे व्यवहार किया..मानो वे जमींदार हैं और हम उनकी प्रजा..तब मैं इंडिया टीवी में काम करता था..और उन दिनों बिहार में चुनाव हो रहे थे और चुनाव की टीम का प्रभारी था..बहरहाल डॉक्टर दीपक कपूर के यहां उन्होंने भेज दिया..डॉक्टर कपूर सज्जन व्यक्ति थे..अपने कमरे में ही उन्होंने बेटी को देखा और लगे हाथों आश्वासन दे दिया कि सिर्फ इंजेक्शन के ही सहारे इस गिलट को ठीक कर दिया जाएगा..उन दिनों करीब नौ रूपए का कोई इंजेक्शन उन्होंने लिखा और वह खरीदकर लाया तो उसे उन्होंने एक छात्र डॉक्टर को पकड़ा दिया..उसे निर्देश दिया कि इसे गिलट में डालो..उस डॉक्टर ने भी अति अमानवीयता का परिचय देते हुए फूल सी बच्ची के सिस्ट में इंजेक्शन घुसेड़ दिया..आंखों के सामने आज भी वह नजारा आता है तो रूह तक कांप जाती है..दीपक कपूर का यह इलाज चार हफ्ते तक चला..हर हफ्ते जाने पर उऩका एक ही आश्वासन होता..अब सिस्ट सूख जाएगा..लेकिन वह लगातार बढ़ता जा रहा था..चौथे हफ्ते तो इतना बड़ा हो गया कि समानांतर सिर ही जैसा वह गिलट नजर आने लगा..तब मैंने दीपक कपूर के चेहरे पर तनाव देखा था..उन्होंने एक पर्ची बनाई और मुझसे अंग्रेजी में कहा था…वी हैव टू टेक सेकंड ओपीनियन और एम्स के लिए रेफर कर दिया..तब मुझे गुस्सा बहुत आया था..लेकिन चुपचाप मैं उसी सीताराम भरतिया अस्पताल लौट आया था..जहां से मैं बच्ची को लेकर कुछ पैसे बचाने के चक्कर में सफदरजंग गया था..यह बात और है कि उस वक्त तक मैंने अपनी गाढ़ी कमाई से जितनी रकम बचा रखी थी..तीन महीने की बच्ची के ऑपरेशन में खत्म हो गए थे..ऑपरेशन के बाद अपनी हालत फुटपाथ खड़े किसी भिखारी से थोड़ी ही अच्छी थी…
ऐसा क्रूर अनुभव होने के बावजूद अगर मैं हाथ में फ्रैक्चर होने के बावजूद सफदरजंग चला गया था तो इसकी बड़ी वजह उस दिन उठने वाला दर्द था..आर्थिक मसला तो खैर था ही…तब मेरा भोला मन यह मान बैठा था कि शायद नौ-दस सालों में अस्पताल की संस्कृति बदल चुकी हो….
क्रमश:

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