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कब तक ढोते रहेंगे बालिका भ्रूण हत्या जैसे कलंक

स्वस्थ बालिका स्वस्थ समाज
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देश की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने महात्मा गांधी की 138वीं जयंती के मौके पर केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की बालिका बचाओ योजना (सेव द गर्ल चाइल्ड) की शुरुआत करते हुए इस बात पर अफसोस जताया था कि “लडकियों को लडको के समान महत्व नहीं मिलता।
महिला सशक्तिकरण से पहले बालिकाओं के सशक्तिकरण के लिए कार्य करना ज़्यादा आवश्यक है। इस काम की शुरूआत माइक्रो लेवेल पर अर्थात घर से होनी चाहिए। महिलाओं पर होने वाले अपराधों की पहली शुरुआत कन्या भ्रूण हत्या से शुरू होती है। बेहद चिंताजंक और विचारणीय तथ्य है कि हमारे देश के सबसे समृद्ध राज्यों पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लिंगानुपात सबसे कम है। संपन्न तबके में यह कुरीति कुछ ज्यादा ही है। हालांकि, बालिका भूण हत्या की प्रवृत्ति गैरकानूनी, अमानवीय और घृणित कार्य है किंतु फिर भी हमारे देश की यह एक अजीब विडंबना है कि सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद समाज में कन्या-भ्रूण हत्या की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं।
कन्या भ्रूण हत्या पर कुछ तथ्यों को देखते हैं। सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक 1981 में 0-6 साल के बच्चों का लिंग अनुपात 1000-962 था जो 1991 में घटकर 1000-945 और 2001 में 1000-927 रह गया। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में वर्ष 2001 से 2005 के अंतराल में करीब 6,82,000 कन्या भ्रूण हत्याएं हुई हैं। इस लिहाज से देखें तो इन चार सालों में रोजाना 1800 से 1900 कन्याओं को जन्म लेने से पहले ही दफ्न कर दिया गया।
ऐसा नहीं है कि इसे रोकने के लिये कानून नहीं हैं। आइये अब थोड़ा कानूनों को भी समझ लेते हैं। 1995 में बने “जन्म पूर्व नैदानिक अधिनियम 1995 (प्री नेटन डायग्नोस्टिक एक्ट, 1995 )” के मुताबिक बच्चे के जन्म से पूर्व उसके लिंग का पता लगाना गैर कानूनी है। इसके अंतर्गत सबसे पहले गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 के अन्त1र्गत गर्भाधारण पूर्व या बाद लिंग चयन और जन्मे से पहले कन्याअ भ्रूण हत्या् के लिए लिंग परीक्षण करने को कानूनी जुर्म ठहराया गया है. इसके साथ ही गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम 1971 के अनुसार केवल विशेष परिस्थितियों मे ही गर्भवती स्त्री अपना गर्भपात करवा सकती है। जब गर्भ की वजह से महिला की जान को खतरा हो या महिला के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को खतरा हो या गर्भ बलात्कार के कारण ठहरा हो या बच्चा गंभीर रूप से विकलांग या अपाहिज पैदा हो सकता हो। आईपीसी मे भी इस संबंध मे प्रावधान मौजूद हैं। धारा 313, 314, 315  में स्त्री की सहमति के बिना गर्भपात करवाने वाले को आजीवन कारावास तक की सज़ा का प्रावधान है।
इसका अर्थ है की कानून कमजोर नहीं है। सज़ा का प्रावधान भी पर्याप्त है। कहीं न कहीं कानून के अनुपालन एवं संबन्धित व्यक्तियों मे इच्छा शक्ति की कमी है। शायद बात साफ है कि कानून का पालन करने और करवाने वाले दोनों ही इस सामाजिक षड्यंत्र मे शामिल हैं। कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा देने वाले कारकों में दहेज नाम का एक अभिशाप ऐसा है जो कन्या भ्रूण हत्या को और फैलाने में सहायक है। महंगाई और गरीबी मे कैसे कैसे इंसान अपने परिवार का पेट पालता है और उसके बाद दहेज की चिंता । स्त्री-विरोधी नज़रिया किसी भी रूप में सिर्फ गरीब परिवारों तक ही सीमित नहीं है, बड़े बड़े ऋण लेकर अमीर दिखते लोगों मे तो ये बीमारी ज़्यादा पैर पसार चुकी है। इस भेदभाव का एक और बड़ा कारक सांस्कृतिक मान्यताओं एवं सामाजिक नियम भी हैं जो सिर्फ पुत्र को ही पिता या माता को मुखाग्नि देने का हक देती है। मां बाप के बाद पुत्र को ही वंश आगे बढ़ाने का काम दिया जाता है। ऐसे में जब तक समाज के एक बड़े तबके की सोच मे बदलाव नहीं होगा, स्थिति नहीं बदलने वाली है।

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