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अंतिम छोर पर पहुंचे मरीजों के लिए आशा की किरण हॉस्पिस

अरुणा सब्बरवाल

जीवन के अंतिम चरण में जब इंसान अपनी असुरक्षित भावनाओं को लेकर अंधेरी सुरंग से गुज़रता है तब अचानक एक छोटी सी प्रकाश की किरण हॉस्पिस (¼ST Lukes & hospice½) के रूप में आती दिखाई देती है। तब वही सुरंग की यात्रा उन्हें सुखद लगने लगती है।
ब्रिटेन के निवासियों ने अपने मन में बुढापे को लेकर झूठी आशाएँ नहीं पाल रखीं हैं। भारत में माता-पिता अपने बुढ़ापे के बारे में न सोच कर अपनी सारी उम्र की कमाई अपने बच्चों के भविष्य को सँवारने में लगा देते हैं। केवल पैसा ही नहीं अपना तन-मन -धन, ऐशो आराम क़ुर्बान कर देते हैं। दैनिक वेतन पाने वाला मजदूर भी अपने बच्चों के भविष्य के लिए सोलह-सोलह घंटे काम करके अपनी जान को जोखिम में डाल कर उनके भविष्य के लिए जान न्योछावर कर देते हैं। इसी उम्मीद में कि एक दिन बुढ़ापे में बच्चे उनका ध्यान रखेंगे। वह भूल जाते हैं कि समय निरंतर बदलता रहता है और समय के साथ सोच और बच्चे भी।
ब्रिटेन की परम्परा बिलकुल विपरीत है। यहाँ माँ-बाप ने अपने बच्चों से कोई आशा नहीं बांधी। उन पर अपनी ख्वाहिशें नहीं थोपते। स्कूल छोड़ते ही बालक वही करता है जो वह चाहता है। माँ-बाप का उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होता, न ही कोई आशा। उन्होंने बच्चों से कोई भ्रांतियाँ नहीं पाल रखी हैं। वह उस यात्रा के लिए पूर्ण रूप से तैयार रहते हैं। इसीलिये माँ-बाप अपने जीवन का भरपूर आनंद लेते हैं।
ब्रिटेन निवासी जानते हैं कि जरूरत पड़ने पर या अंतिम समय में ब्रिटेन में सोशल सर्विसेज है, सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था है, वृद्धआश्रम है जिनका पूरा ख़र्चा सरकार की ओर से होता है। कभी -कभी उनके पारिवारिक डॉक्टर की ओर से भी referal आता है। कुछ प्राइवेट वृद्धआश्रम भी हैं। इनके अतिरिक्त बहुत सी परोपकारी संस्थाएँ भी हैं जैसे माइंड (Mind), हॉर्ट (Su Ryder) इत्यादि।
हॉस्पिस वह संस्था है जिसके बारे में सुनकर आप चकित रह जाएँगे। यह संस्था St Luke के नाम से जानी जाती है। ग्रीक के एक चिकित्सक थे जिनका नाम lukas mannual था जो बिगड़ कर St Luke नाम से जाना जाने लगा। इनका जिक्र बाईबल में एक डॉकटर के नाम से है। ग्रीक में lukas का मतलब है The man who heelA । बाईबल में St luke का मतलब है प्रकाश देने वाली। लोगों ने इसे और सार्थक नाम दे दिया ‘हार्ट ओफ होप्स‘ (Heart of Hopes St Luke)। हॉस्पिस सचमुच जीवन में प्रकाश देने वाली ही संस्था है। यह अस्पताल या होम नहीं, न ही कोई वृद्धाश्रम।
हॉस्पिस यह एक परोपकारी संस्था है। यहाँ लोग जीवन के अंतिम मोड़ पर आते हैं। उन्हें यहाँ भावात्मक, सामाजिक, आध्यात्मिक तथा आर्थिक सहायता निशुल्क प्रदान की जाती है। इनका उद्देश्य है रोगियों के बचे हुए जीवन को सर्वाेतम ढंग से जीने के लिए सहायता करना और उनके जीवन में ख़ुशी के कुछ और दिन जोड़ना। इसीलिये माँ-बाप अपने जीवन का भरपूर आनंद लेते हैं। यह देखभाल उनके घर और अस्पताल और क्लीनिक में भी दी जा सकती है। कितनी अवधि के लिए, यह अलग-अलग होस्पिस पर निर्भर करता है।
यहां रोगियों के धार्मिक और सांस्कृतिक अनुभवों का आदर किया जाता है। उनकी आत्मनिर्भरता के लिए, उनके रचनात्मक, कलात्मक हित का भी ध्यान रखा जाता है। अंतिम अवस्था में रोगी का स्वयं पर विश्वास होना बहुत आवश्यक है कि वह अकेले नहीं मरेंगे। यह अंतिम कड़ी नहीं, सहायता की पहली कड़ी है। कई बार फैमिली डॉक्टर के परामर्श से हॉस्पिस में लिया जाता है।
हॉस्पिस का उद्देश्य है मरीज़ों की गरिमा को सुरक्षित रखना, उनकी ऊर्जा को क़ायम रखना। उनके आत्मसम्मान को चरमराने न देना।
इनकी सभी सेवाएँ निशुल्क हैं। यहाँ स्वास्थ्य हेतु शिक्षा भी दी जाती है। रोगी तथा उनके परिवार को हर प्रकार की सहायता मिलती है। अगर मरीज़ घर पर ही रहना चाहे तो उन्हें चौबीस घंटे या फिर कुछ घंटों की सहायता का भी प्रबंध होता है। जैसे उनकी शॉपिंग करना, उन्हें नहलाना-धुलना, खाना बनाना इत्यादि। हॉस्पिस के डे सेंटर भी हैं। हॉस्पिस की ट्रांसपोर्ट उन्हें डे सेंटर ले जाने और लाने का काम करती है। इनके साथ बाहर की दूसरी संस्थाएँ भी इनसे जुड़ी हैं जैसे सोशल सर्विेसज, नेशनल हेल्थ सर्विस जिनका अंशदान तीस प्रतिशत है। इनकी टीम में डॉक्टर, नर्स, सोशल वर्कर, थेरेपिस्ट, पूरी टीम की सभी सेवाएँ समुदाय के लिये सदा उपलब्ध रहती हैं।
अब प्रश्न उठता है कि इस परोपकारी संस्था के लिए दान कहाँ से आता है? ब्रिटेन का समाज बहुत दयालु है। पूरा पैसा जनता के दिए दान-प्रदान किए सामान को बेच कर इकट्ठा किया जाता है। दान में आप इस्तेमाल किया घर का कोई भी सामान दे सकते हैं जैसे कपड़े, बर्तन, किताबें, फ़र्नीचर, सीडिज, वीडीयो, बिजली का सामान, जूते, बच्चों के कपड़े, खिलोने इत्यादि। बशर्ते सामान अच्छी हालत में हों। सामान को साफ करके, कपड़ों को प्रेस करके बहुत सुंदरता से प्रस्तुत किया जाता है। इसके अतिरिक्त आप अपने बैंक से कपतमबज कमइपज द्वारा भी दान दे सकते हैं। चंदा एकत्र करने के लिए लम्बी-लम्बी ग्रुप्स सैर का भी प्रबंध किया जाता है।
अपनी विविधताओं और विशेषताओं के कारण ये संस्था परोपकारी,, दयालु और निष्काम भावना से नागरिकों को आकर्षित करती है। हॉस्पिस में मैनेजर के अतिरिक्त बाक़ी लोग सभी कार्यकर्ता निशुल्क अपनी सेवा अर्पित करते हैं। सेवा दान देने में बहुत फ्लेक्सिबिलिटी है। एक घंटे से ले कर आठ घंटे तक, आप जब और जितने घंटे चाहें, काम कर सकते है। समय-समय पर संस्था की ओर से स्वयं सेवकों को धन्यवाद का पत्र आता है। कार्य अनुभव के लिए स्कूलों के सोलह वर्ष के बच्चे भी निष्काम सेवा में योगदान करके स्कूल का प्रतिनिधित्व करते हैं।
हॉस्पिस में स्पेशल एजुकेशनल नीड्ज के नागरिकों को भी उनकी योग्यता के अनुसार काम करने के लिये उत्साहित किया जाता है। इसका उद्देश्य है कि ऐसे लोग स्वयं को समाज का लाभकारी नागरिक समझें। प्रत्येक सेंटर में पचीस से तीस ऐसे कार्यकर्ता जरूर होते हैं जिनके आत्मविश्वास को प्रोत्साहित किया जाता है ताकि उनकी भाषा और सामाजिक विकास के साथ-साथ वह मुख्य धारा का अंग बन सकें।
अपनी-अपनी सांस्कृतिक से जुड़े रहने के लिए सभी धर्मों को बराबर को महत्ता दी जाती है। यहाँ मल्टीफ़ेथ सेंटर है। वहाँ मंदिर, चर्च, गुरुद्वारा इत्यादि आस्था और विश्वाश के रूप में स्थापित हैं। जहाँ जो चाहे, जब चाहे जाकर प्रार्थना कर सकता है।
यहां जो लोग अपने प्रियजनों की देखभाल घर पर करते हैं, उन्हें दो-तीन दिन या दो-तीन सप्ताह की राहत देने के लिए उनके प्रियजनों का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर हॉस्पिस ले लेते हैं।
यहाँ मरीजों की हर सुविधा का पूरा ध्यान रखा जाता है। एक बड़ी सी भव्य बैठक में, आरामदायक सोफे, टेलिविजन, भाँति-भाँति की खेलें, चाय-कॉफी की सुविधा, बिल्कुल घर जैसा। सप्ताह में एक दोपहर को तकरीबन सभी निवासी वहाँ हाई टी (ब्रिटेन में हाई टी में छोटी-छोटी सैंडविच, स्कोन, केक, क्रम्पट आदि) के लिए वहाँ एकत्र होते हैं ताकि एक दूसरे से जान-पहचान हो जाए। जो स्वयं आने की स्थिति में नहीं होते, उन्हें स्टाफ़ लाने की कोशिश करते हैं। मरीजों को खुली आजादी होती है कि वह हॉस्पिटल में पूरी आजादी से घूम सकें। बगीचे में रंग-बिरेगे फूलों की क्यारियाँ, भिन्न-भिन्न प्रकार के वृक्ष, सेव, नाशपाती और अंजीर के वृक्ष, जिन पर डाल-डाल झूमती गिलहरियाँ दिखाई देती हैं। बैठने के लिए बेंच और आरामदायक कुर्सियाँ भी पड़ी होती हैं जहाँ मरीज बैठ कर
प्रकृति का आनंद ले सकते हैं। मरीज़ों को अपनी मर्जी से रहने की पूरी छूट है।
यहाँ तो हर नया मरीज अपनी-अपनी यातनाओं से जूझता हुआ अपने चेहरे पर एक अजीब सी उदासी ले कर आता है। सबकी अपनी-अपनी पीड़ा है। अपनी-अपनी कहानी है। सब जानते हैं कि वह यहाँ क्यूँ हैं? उनकी यातनाओं को कोई दूर तो नहीं कर सकता, किंतु दो-चार घड़ी उनके पास बैठ कर उनके दुःख, उनका अकेलापन तो बाँट ही सकता है, मलहम तो लगा सकता है। हॉस्पिस के निवासियों को अपना कुत्ता या बिल्ली रखने की सुविधा हैं।
अब प्रश्न यह है कि क्या हॉस्पिस एक आश्रम है? धर्मशाला है? मरणासन्न रोगियों का आश्रम है? या मरणासन्न रोगियों का अस्पताल?
महत्वपूर्ण बात यह है कि हॉस्पिस संस्था ज़रूर अंतिम समय में रोगियों के बचे हुए जीवन को सर्वाेतम ढंग से जीने के लिए सहायता करती है और उनके जीवन में कुछ और दिन जोड़ देती है।
यह मेरा सौभाग्य है कि मैं भी सप्ताह में दो दिन कार्य करती हूँ।
आज इस आलेख को लिखते हुए मैं स्वयं को गौरवानित महसूस करती हूँ कि मैं भी सप्ताह में दो दिन यहाँ कार्यरत हूँ और इस संस्था की सदस्य हूँ।

पुरवाई पोर्टल से साभार

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