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एक ही किताब में कोरोनाकाल के सारे आयाम समाहित

वर्ष 2020 के पहले त्रैमास में ही सदी में होने वाली महामारी कोरोना का आतंक दुनिया पर हावी होता चला गया। दुनिया घरों में लॉकडाउन हो गई। कोरोना काल सदी की त्रासदी है. वर्तमान पीढ़ी के लिये यह न भूतो न भविष्यति वाली विचित्र स्थिति थी। आवागमन बाधित दुनियां में संपर्क के लिये इंटरनेट बड़ा सहारा बना। दूसरी कोरोना लहर के कठिन समय में मोबाइल की घंटी से भी किसी अप्रिय सूचना का भय सताने लगा था। अंततोगत्वा समवेत प्रयासों की, जीवंतता की, सकारात्मकता का संघर्ष विजयी हुआ। रचनात्मकता नही रुकी, मानवीयता मुखरित हुई। कोरोना काल साहित्य के लिये भी एक सक्रिय रचनाकाल के रूप में जाना जायेगा।
इस कालावधि में एकाकीपन से निपटने को लेखन के जरिये लोगों ने अपनी भावाभिव्यक्ति की। इंटरनेट के माध्यम से फेसबुक, गूगल मीट, जूम जैसे संसाधनों का प्रयोग करते हुये ढेर सारे आयोजन हुये। यू ट्यूब इन सबसे भरा हुआ है।
विगत पच्चीस बरसों से दिल्ली-एनसीआर में सक्रिय समाजसेवी संस्था दधीची देहदान समिति ने भी स्वस्फूर्त कोरोना से लड़ने का बीड़ा उठाकर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। जब आम आदमी विवशता में मन से टूट रहा था, सकारात्मकता के विस्तार की आवश्यकता को समझ कर एक ऑनलाइन व्याख्यानमाला आयोजित की गई। हमेशा से वैचारिक पृष्ठभूमि ही जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है। सकारात्मक विचार ही जीवन संबल बनते हैं। दस दिनों तक कोरोना की विषमता से निपटने के लिये जन सामान्य में मानसिक ऊर्जा का नव संचार मनीषियों के चिंतन पूर्ण वैचारिक संप्रेषण से संभव हुआ। ऑनलाइन व्याख्यान की तात्कालिक पहुंच भले ही दूर-दूर तक होती है, किन्तु वे शाश्वत संबोधन भी तब तक चिर जीवी संदर्भ नहीं बन पाते जब तक उन व्याख्यानों को पुस्तक का स्थायी स्वरूप न मिले। मंजु प्रभा जी ने यह जिम्मेदारी कुशलता पूर्वक उठाकर यह कृति ‘सकारात्मकता से संकल्प विजय का’ प्रस्तुत की है। इस द्विभाषी पुस्तक में हिन्दी और अंग्रेजी में स्थायी महत्व की सामग्री चार खंडों
में संग्रहित है।

पहले खण्ड में तत्कालीन उप राष्ट्रपति एम. वैंकैया नायडू का देहदानियों के सम्मान उत्सव के अवसर पर संबोधन संपादित स्वरूप में शामिल है। उनका यह कहना महत्वपूर्ण है कि अंगदान से न केवल आप दूसरे के शरीर में जीवित रहते हैं बल्कि मानवता को भी जीवित रखते हैं। शंकराचार्य विजयेंद्र सरस्वती जी ने अपने व्याख्यान में अशोक वाटिका में सीता जी के हतोत्साहित मन में सकारात्मकता के नव संचार करने वाले हनुमान जी के सीता जी से संवाद वाले प्रसंग की व्याख्या की है। मोहन भागवत ने अपने लेख में ‘Success is not final, failure is not fatal, the courage to continue is the only thing that matters’ की विशद व्याख्या की है। उन्होंने चर्चिल को उधृत किया है-We are not interested in possibilities of defeat, they do not exist’। अजीज प्रेम जी ने आव्हान किया है-come together and do everything we can। उन्होंने कहा-The Country Must Come Together As One। सदगुरु जग्गी वासुदेव जी ने विवेचना करते हुये बताया-The problem is that we are more dedicated to our lifestyle than our life itself। उन्होंने समझाया-How we can be part of the solution। श्री श्री रविशंकर जी ने कहा कि इस वक्त हमें करनी होगी वही बात कि निर्बल के बल राम। ईश्वर पर विश्वास ही हमको मानसिक तनाव से दूर रखता है। उन्होंने बताया कि योग, प्राणायाम, ध्यान और समुचित आहार ही जीवन का सही रास्ता है। साध्वी ॠतंभरा के कथन का सार था कि शुभ कर्मों के बिना कभी भी हुआ नहीं निस्तारा, जीत लिया जिसने मन, उसने जीत लिया जग सारा। इस दुनिया का सार एक है नित्य अबाध रवानी, अपनी राह बना लेता है, खुद ही बहता पानी।
महंत संत ज्ञानदेव सिंह जी ने अपने व्यक्त्व्य में संदेश दिया-उठो जागो और अपने स्वरूप को पहचानो। मुनि प्रमाण सागर जी ने मन को प्रबल बनाये रखने का संदेश दिया। उन्होने कहा कि तन की बीमारी को कभी भी मन पर हावी न होने दें। प्रसिद्ध नृत्यांगना सोनल मानसिंग ने कला को संबल बताया, हमारी हॉबी ही हमें मानसिक-शारीरिक व्याधियों से बचाकर निकाल लाती है। उन्होंने पॉजीटिविटी, ग्रेच्युटी और प्रेयर का महत्व प्रतिपादित किया। निवेदिता भिड़े जी ने कहा कि जो विष धारण करने की क्षमता विकसित कर लेता है, अंततोगत्वा वही जीतता है और अमृत पीता है। उन्होंने स्वामी विवेकानंद की पुस्तक ‘पॉवर्स ऑफ द माइंड’ का उल्लेख किया, रामरक्षा स्त्रोत तथा विष्णु सहस्त्र नाम का भी महात्म्य समझाया।
समाज के विभिन्न क्षेत्रों की आइकानिक हस्तियों को एक मंच पर इकट्ठा करके एक विषय पर केंद्रित आलेखों का उनका यह संग्रह एक संदर्भ कृति बन गया है। आलोक कुमार का आलेख ‘कोरोना और युगधर्म’ पठनीय है।.पुस्तक के दूसरे खण्ड ‘वे लड़े कोरोना से’ में उन कुछ व्यक्तियों की चर्चा है जिन्होंने इस लड़ाई में अपना योगदान दिया है, यद्यपि कहना होगा कि यह खण्ड ही अत्यंत वृहत हो सकता है क्योंकि हर शहर ऐसे विलक्षण समर्पित जोशीले लोगों से भरा हुआ था तब तो हम कोरोना को हरा सके हैं। जो भी सात-आठ प्रासंगिक उल्लेख पुस्तक में समावेशित हो सका, वह एक प्रतिनिधि चित्र तो अंकित करता ही है। तीसरा खण्ड कथाएं अनुपम त्याग की में समिति के मूल उद्देश्य अंगदान को लेकर महत्वपूर्ण सामग्री है। प्रायः हमें अखबारों में, भागते वाहनों में अंग प्रत्यारोपण के लिये ग्रीन कॉरीडोर की खबरें पढ़ने मिलती हैं। हमारा देश दधीचि का देश है, राजा शिवि का देश है। अंगदान को प्रोत्साहन देता यह खण्ड चिंतन-मनन के लिये विवश करता है। चौथे खण्ड में दधीची देहदान समिति के कार्यों का वर्णन है। बीच-बीच में समिति के क्रियाकलापों, आयोजनों आदि के चित्र व टेस्टीमोनियल्स भी लगाये गये हैं।. एक समीक्षक की दृष्टि से मेरा सुझाव है कि बेहतर होता यदि ये चारों ही खण्ड प्रत्येक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रस्तुत हो पाता।
इसी तरह हिन्दी तथा अंग्रेजी के आलेख एक साथ रखने की अपेक्षा उनके अनुवादित तथा संपादित आलेख तैयार करके दोनों भाषाओं की दो अलग-अलग पुस्तकें बनाई जातीं। यद्यपि यह खिचड़ी प्रयोग भी नवाचारी है। अस्तु मैं दधीची देहदान समिति के इस स्तुत्य साहित्यिक प्रयास की मन से अभ्यर्थना करता हूं। स्वास्थ्य विमर्श पर साहित्य की यह किताब अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारियों के साथ प्रस्तुत करने के लिये मंजु प्रभा जी को हार्दिक बधाई और पुस्तक प्रकाशन हेतु वित्त सुलभ करवाने हेतु लाला दीवान चंद ट्रस्ट तथा प्रकाशन के लिये प्रभात प्रकाशन का भी आभार। यह किताब कोरोना संकट के मानसिक तनाव से उबरने का दस्तावेज बन पड़ी है। पठनीय और संदर्भाे के लिये संग्रहणीय भी है।

प्रस्तुति-विवेक रंजन श्रीवास्तव

पुस्तक- सकारात्मकता से संकल्प विजय का
संपादन- मंजु प्रभा
दधीची देहदान समिति
प्रभात प्रकाशन, नयी दिल्ली
पृष्ठ- 180
मूल्य- 400 रुपये

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