विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
पानी जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। सारी सभ्यतायें नैसर्गिक जल स्रोतांे के तटों पर ही विकसित हुई हैं। बढ़ती आबादी के दबाव तथा औद्योगिकीकरण से पानी की मांग बढ़ती ही जा रही है। इसलिये भूजल का अंधाधुंध दोहन हो रहा है और परिणामस्वरूप जमीन के अंदर पानी के स्तर में लगातार गिरावट होती जा रही है। नदियों पर हर संभावित प्राकृतिक स्थल पर बांध बनाये गये हैं। बांधों की ऊंचाई को लेकर अनेक जन आंदोलन हमने देखे हैं। बांधों के दुष्परिणाम भी हुये, जंगल डूब में आते चले गये और गांवों का विस्थापन हुआ। बढ़ती पानी की मांग के चलते जलाशयों के बंड रेजिंग के प्रोजेक्ट जब तब बनाये जाते हैं।
रहवासी क्षेत्रो के अंधाधुन्ध सीमेंटीकरण, पालीथिन के व्यापक उपयोग तथा कचरे के समुचित डिस्पोजल के अभाव में हर साल तेज बारिश के समय या बादल फटने की प्राकृतिक घटनाओं से शहर, सड़कें, बस्तियों के लगातार डूबने की घटनायें बढ़ीं हैं। विगत वर्षाे में चेन्नई, केरल की बाढ़ हम भूले भी न थे कि इस साल तटीय नगरों में गंगा जी घुस आई। मध्यप्रदेश के गांधी सागर बांध का पावर हाउस समय रहते बांध के पानी की निकासी के अभाव में डूब गया।
बाढ़ की इन समस्याओं के तकनीकी समाधान क्या हैं? नदियों को जोड़ने के प्रोजेक्टस अब तक मैदानी हकीकत नहीं बन पाये हैं। चूंकि उनमें नहरें बनाकर बेसिन चेंज करने होंगे, पहाड़ों की कटिंग, सुरंगें बनानी पड़ेंगी, ये सारे प्रोजेक्टस् बेहद खर्चीले हैं और फिलहाल सरकारों के पास इतनी अकूत राशि नहीं है। फिर बाढ़ की त्रासदी के इंजीनियरिंग समाधान क्या हो सकते हैं?
अब समय आ गया है कि जलाशयों, वाटर बाडीज, शहरों के पास नदियों को ऊंचा नहीं, गहरा किया जाये। यांत्रिक सुविधाओं व तकनीकी रूप से विगत दो दशकों में हम इतने संपन्न हो चुके हैं कि समुद्र की तलहटी पर भी उत्खनन के काम हो रहे हैं। समुद्र पर पुल तक बनाये जा रहे हैं, बिजली और ऑप्टिकल सिग्नल केबल लाइनें बिछाई जा रही हैं। तालाबों, जलाशयों की सफाई के लिये जहाजों पर माउंटेड ड्रिलिंग, एक्सकेवेटर, मडपम्पिंग मशीनें उपलब्ध हैं। कई विशेषज्ञ कम्पनियां इस क्षेत्र में काम करने की क्षमता सम्पन्न हैं। मूलतः इस तरह के कार्य हेतु किसी जहाज या बड़ी नाव, स्टीमर पर एक फ्रेम माउंट किया जाता है जिसमें मथानी की तरह का बड़ा रिंग उपकरण लगाया जाता है जो जलाशय की तलहटी तक पहुंच कर मिट्टी को मथकर खोदता है। फिर उसे मड पम्प के जरिये जलाशय से बाहर फेंका जाता है। नदियों के ग्रीष्म काल में सूख जाने पर तो यह काम सरलता से जेसीबी मशीनों से ही किया जा सकता है। नदी और बड़े नालों में भी नदी की ही चौड़ाई तथा लगभग एक किलोमीटर लम्बाई में चम्मच के आकार की लगभग दस से बीस मीटर की गहराई में खुदाई करके रिजरवायर बनाये जा सकते हैं। इन वाटर बाडीज में नदी के बहाव का पानी भर जायेगा, ऊपरी सतह से नदी का प्रवाह भी बना रहेगा जिससे पानी का ऑक्सीजन कंटेंट पर्याप्त रहेगा। दो से चार वर्षाें में इन रिजरवायर में धीरे-धीरे सिल्ट जमा होगी जिसे इस अंतराल पर ड्रोजर के द्वारा साफ करना होगा। नदी के क्षेत्रफल में ही इस तरह तैयार जलाशय का विस्तार होने से कोई भी अतिरिक्त डूब क्षेत्र जैसी समस्या नहीं होगी। जलाशय के पानी को पम्प करके यथा आवश्यकता उपयोग किया जाता रहेगा।
अब जरूरी है कि अभियान चलाकर बांधों में जमा सिल्ट ही न निकाली जाये वरन जियोलॉजिकल एक्सपर्टस की सलाह के अनुरूप बांधों को गहरा करके उनकी जल संग्रहण क्षमता बढ़ाई जाने के लिये हर स्तर पर प्रयास किये जायें। शहरों के किनारे से होकर गुजरने वाली नदियों में ग्रीष्म काल में जल धारा सूख जाती है। हाल ही पवित्र क्षिप्रा के तट पर संपन्न उज्जैन के सिंहस्थ के लिये क्षिप्रा में नर्मदा नदी का पानी पम्प करके डालना पड़ा था। यदि क्षिप्रा की तली को गहरा करके जलाशय बना दिया जाये तो उसका पानी स्वतः ही नदी में बारहो माह संग्रहित रहा करेगा। इस विधि से बरसात के दिनो में बाढ़ की समस्या से भी किसी हद तक नियंत्रण किया जा सकता है। इतना ही नहीं, गिरते हुये भू जल स्तर पर भी नियंत्रण हो सकता है क्योंकि गहराई में पानी संग्रहण से जमीन रिचार्ज होगी। साथ ही जब नदी में ही पानी उपलब्ध होगा तो लोग ट्यूब वेल का इस्तेमाल भी कम करेंगे। इस तरह दोहरे स्तर पर भूजल में वृद्धि होगी। नदियों व अन्य वाटर बॉडीज के गहरी करण से जो मिट्टी व अन्य सामग्री बाहर आयेगी उसका उपयोग भी भवन निर्माण, सड़क निर्माण तथा अन्य इंफ्रा स्ट्रक्चर डेवलेपमेंट में किया जा सकेगा। वर्तमान में इसके लिये पहाड़ खोदे जा रहे हैं जिससे पर्यावरण को व्यापक स्थायी नुकसान हो रहा है क्योंकि पहाड़ियों की खुदाई करके पत्थर व मुरम तो प्राप्त हो रही है पर इन पर लगे वृक्षों का विनाश हो रहा है एवं पहाड़ियों के खत्म होते जाने से स्थानीय बादलों से होने वाली वर्षा भी प्रभावित हो रही है।
नदियों की तलहटी की खुदाई से एक और बड़ा लाभ यह होगा कि इन नदियों के भीतर छिपी खनिज संपदा का अनावरण सहज ही हो सकेगा। छत्तीसगढ़ में महानदी में स्वर्ण कण मिलते हैं तो कावेरी के थले में प्राकृतिक गैस। इस तरह के अनेक संभावना वाले क्षेत्रों में विषेष उत्खनन भी करवाया जा सकता है।
पुरातात्विक महत्व के अनेक परिणाम भी हमें नदियों तथा जलाशयों के गहरे उत्खनन से मिल सकते हैं क्योंकि भारतीय संस्कृति में आज भी अनेक आयोजनों के अवशेष नदियों में विसर्जित कर देने की परम्परा हम पाले हुये हैं। नदियों के पुलो से गुजरते हुये जाने कितने ही सिक्के नदी में डाले जाने की आस्था जन मानस में देखने को मिलती है। निश्चित ही सदियों की बाढ़ में अपने साथ नदियां जो कुछ बहाकर ले आई होंगी, उस इतिहास को अनावृत करने में नदियों के गहरीकरण से बड़ा योगदान मिलेगा।
पनबिजली बनाने के लिये अवश्य ऊँचे बांधों की जरूरत बनी रहेगी पर उसमें भी रिवर्सिबल रिजरवायर, पम्प टरबाईन टेक्नीक से पीकिंग अवर विद्युत उत्पादन को बढ़ावा देकर गहरे जलाशयों के पानी का उपयोग किया जा सकता है।
मेरे इस मौलिक विचार पर भूवैज्ञानिक, राजनेता, नगर व ग्राम स्थानीय प्रशासन, केद्र व राज्य सरकारों को तुरंत कार्य करने की जरूरत है जिससे महाराष्ट्र जैसे सूखे से देश बच सके कि हमें पानी की ट्रेनें न चलानी पड़े बल्कि बरसात में हर क्षेत्र की नदियों में बाढ़ की तबाही मचाता जो पानी व्यर्थ बह जाता है तथा साथ में मिट्टी बहा ले जाता है, वह नगर-नगर में नदी के क्षेत्रफल के विस्तार में ही गहराई में साल भर संग्रहित रह सके और इन प्राकृतिक जलाशयों से उस क्षेत्र की जल आपूर्ति वर्ष भर हो सके। इन दिनों जलवायु परिवर्तन से फ्लैश फ्लड का बचाव इस तरह संभव हो सकेगा।
(लेखक मध्य प्रदेश पूर्वी क्षेत्र विद्युत वितरण कम्पनी के सेवा निवृत मुख्य अभियंता हैं।)