चीन ने कोरोना वाइरस को आर्थिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। दुनिया को जैविक युद्ध की ओर धकेला है। इसी विषय को रेखांकित कर रहे हैं वरिष्ठ स्तंभकार व स्वस्थ भारत (न्यास) के विधि सलाहकार अमित त्यागी
एबीएम/मन की बात
कोरोना सिर्फ एक वाइरस नहीं है बल्कि अमेरिका के वर्चस्व को चीन की सीधी चुनौती है। यह 21 वी शताब्दी का विश्वयुद्ध है जो नए किस्म के हथियार के साथ नये तरीके से लड़ा जा रहा है। इसके पहले 20वी शताब्दी ने दो विश्वयुद्ध की विभीषिका को झेला है। इन विश्वयुद्धों में काफी मात्रा में धन और जन की हानि हुयी थी। दुनिया दो खेमों में बंट गयी थी। अमेरिका और तत्कालीन सोवियत रूस इन शक्तियों के सर्जक मानवता के विनाशक थे। इस बार चीन इस भूमिका में है। प्रथम दो विश्वयुद्ध में युद्ध को खत्म करने का नियंत्रण महाशक्तियों के पास उपलब्ध था। किन्तु इस बार ऐसा नहीं है। इस बाइलोजिकल वेपन ( जैविक हथियार ) का तोड़ किसी के पास नहीं है। यदि इसकी दवा भी उपलब्ध हो जाती है तब भी यह लंबे समय तक मानवता को विनाश देता रहेगा। यह हथियार कोई सेना नहीं है जिसे वापस अपने खेमे में बुलाया जा सके। यह पारंपरिक हथियारों से ज़्यादा घातक है और परमाणु बम से भी ज़्यादा विनाशकारी।
रोग प्रतिरोधक क्षमता है बचाव
इससे बचने का एक ही उपाय सामने आया है और वह है शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता। जिस व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता जितनी ज़्यादा होगी वह ही इस जैविक हथियार के हमले से बच सकेगा। भारतीय जीवन शैली रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है। चीन द्वारा स्वास्थ्य के खिलवाड़ के माध्यम से थोपे गए इस विश्वयुद्ध की खेमेबंदी को समझना भी आवश्यक है। 1989 तक अमेरिका और सोवियत संघ के रूप में दो महाशक्तियां मौजूद थीं। 1989 में सोवियत संघ का विघटन हुआ और अमेरिका एक बड़ी एवं एकमात्र महाशक्ति बन कर उभरा। चीन इस बीच अपनी ताकत को बढ़ाता रहा और आर्थिक रूप से अमेरिका को चुनौती देता रहा। इस बीच अमेरिका अपनी दादागिरी को दिखाते हुये कभी उत्तरी कोरिया को धमकाता रहा तो कभी ईरान को। धीरे-धीरे सोवियत संघ, ईरान, उत्तरी कोरिया और चीन के बीच एक समीकरण बन गया जो 1989 के पहले के सोवियत संघ की तरह एक महाशक्ति बन कर उभरने लगा। बस इस बार एक अंतर यह था कि इस बार दूसरी महाशक्ति का नेतृत्व सोवियत संघ नहीं बल्कि चीन कर रहा था।
धन नहीं स्वास्थ्य है प्राथमिकता
सिर्फ कोरोना के हमले से विश्व की सभी आर्थिक महाशक्तियों को चीन ने एक झटके में हिला दिया है। सभी महत्वपूर्ण उत्पादक देशों में लॉकडाउन है। इन सब देशों में सिर्फ जनहानि ही नहीं हो रही है बल्कि अर्थव्यवस्था भी बैठ गयी है। आर्थिक महाशक्तियों के वर्चस्व की लड़ाई में चीन द्वारा थोपे गये इस आर्थिक विश्वयुद्ध पर न तो संयुक्त राष्ट्र कुछ कहने की स्थिति में हैं न ही नाटो जैसा महत्वपूर्ण संगठन। सब लाचार और मौन रहकर चीन के इस विनाशक ब्रहमास्त्र के शांत होने का इंतज़ार मात्र कर रहे हैं। विश्व के कई देशों को सोमालिया जैसे हालातों की तरफ चीन ने धकेल दिया है। अब पूंजीवादी व्यवस्था को समझ आ गया है कि धन नहीं स्वास्थ्य प्राथमिकता है। धन से उपकरण तो खरीदे जा सकते हैं किन्तु यह कोरोना जैसे वाइरस से निपटने में सक्षम नहीं हैं। एक बीमार राष्ट्र न कभी सक्षम हो सकता है न ही विश्वगुरु बन सकता है। हमें स्वास्थ्य बीमा के स्थान पर स्वस्थ होने की व्यवस्था की आवश्यकता है।
(लेखक स्वस्थ भारत (न्यास) के विधि सलाहकार व वरिष्ठ स्तंभकार हैं)