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स्वच्छता अभियान : गांधी ही क्यों?

यह आलेख प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित मृदुला सिन्हा जी की पुस्तक स्वच्छता संस्कार से लिया गया है। इस आलेख में मृदुला जी ने गांधी के स्वास्थ्य चिंतन एवं उसके धरातली प्रयोग के बारे में लिखा है। स्वस्थ भारत  डॉट इन द्वारा शुरु  किए गए वेब सीरीजि ‘स्वास्थ्य की बात गांधी के साथ’ श्रृंखला में यह दूसरा आलेख है। उम्मीद है आप पाठकों को यह प्रयोग अच्छा लगेगा। अगर आपके पास भी गांधी जी के स्वास्थ्य चिंतन से जुड़े कोई तथ्य/बात हो तो आप हमें forhealthyindia@gmail.com पर प्रेषित करें। महात्मा गांधी के 150 वीं जयंती वर्ष में आपकी यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

 

 
   
 
मृदुला सिन्हा,राज्यपाल,गोवा
भावी समृद्धि और विकास की प्रक्रिया प्रारंभ करने से पूर्व स्वच्छता अभियान चलाने की मनसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की थी। उसकी शुरुआत करने के लिए गांधी का जन्मदिन 2 अक्तूबर को ही चुनना और 2019 (गांधीजी की जन्म शताब्दी) तक जनता के सक्रिय सहयोग से देश का कोना-कोना स्वच्छ कर देने का संकल्प लेना अपने किसी राष्ट्रीय पूर्वज को स्मरण करने की रस्म-अदायगी भर नहीं है। वर्तमान समय में कम संख्या में ही सही, ऐसे लोग हैं, जिन्होंने बचपन में गांधी को देखा है। हजारों लोग गांधी द्वारा स्थापित या गांधी के विचारों के आधार पर स्थापित संस्थाओं में सेवारत हैं। विकास की पंचवर्षीय योजनाओं में भले ही गांधी के चरखा, अहिंसा, स्वदेशी, स्वावलंबन, स्वच्छता, ग्रामीण जीवन, खादी, गाय और गंगा की उपेक्षा हुई है। मानव को संसाधन मानकर शिक्षा की नीतियाँ बनाते समय ‘गीता’ की उपेक्षा हुई है, तथापि आर्थिक और सामाजिक जीवन के विकास के योजनाकारों को गांधी की बताई बिंदुओं का सहारा लेना ही पड़ता है। आज भी हजारों लोग हैं, जो गांधी के बताए जीवन पद्धति अपनाए हुए हैं। भारतीय पुरातन संस्कृति से ही सूत्र निकालकर गांधी ने तत्कालीन राष्ट्रीय, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत समस्याओं के हल निकालने की कोशिश की थी। तत्कालीन भारतीय समाज को गांधी ने एक बार फिर उन विषयों का स्मरण कराया था, जो उस समाज की धरोहर थे, जिन सूत्रों पर समाज का जीवन अवलंबित था। अपने समय का कोई भी महान् व्यक्ति समाज को उनके द्वारा विस्मृत धरोहरों का ही तो स्मरण दिलाता है। व्यक्ति, परिवार और समाज के निर्माण के लिए भारतीय सनातन जीवन पद्धति में अनमोल धरोहरें रही हैं, जिन राहों पर चलकर और जिन्हें अपनाकर भारत कभी ‘विश्वगुरु’ तो कभी ‘सोने की चिड़िया’ कहलाया।
‘विश्वबंधुत्व’, ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का सनातन विचार और व्यवहार भारत को विश्व में उदारवादी दृष्टिकोण तथा व्यवहार के लिए प्रथम स्थान पर रखते आए हैं, ‘इदं मम्, परोवेति, गणना लघुचेतशाम्, उदारचरिता नाम तू, वसुधैवकुटुंबकम्।।’
सत्य और अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी ने शास्त्रों द्वारा स्थापित और सनातन लोक द्वारा व्यवहृत सभी विस्मृत जीवन सूत्रों को अपने काल में पुनर्जीवित किया था।
‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल।’
बिना तलवार (हथियार) के आजादी की लड़ाई लड़ने के पीछे अहिंसा ही आधार थी। अहिंसा भी योग और आयुर्वेद की तरह हमारी पुरातन धरोहर है, जिस पर व्यक्ति और समाज का जीवन आधारित रहा है। उनमें स्वच्छता की प्रमुखता रही है। अहिंसक जीवन पद्धति का आधार शरीर, मन और बुद्धि की स्वच्छता ही होती है। अहिंसा और स्वच्छता एक-दूसरे के पूरक हैं, पर्याय भी।
महात्मा गांधी ने किसी भी नए विचार को कभी अपने अनुयायियों पर थोपा नहीं। स्वयं अपने ऊपर प्रयोग करके देखा। एक बच्चे का गांधी द्वारा मीठा छुड़ाने का प्रसंग बहुश्रुत है। प्रसंग में एक गांधी भक्त महिला ने उनसे कहा, ‘‘मेरा बच्चा बहुत मीठा खाता है। आप इससे मीठा छोड़ने के लिए कहिए तो मान जाएगा।’’
गांधी ने कहा, ‘‘चार दिनों बाद आना।’’ चार दिनों बाद आने पर गांधी ने बच्चे से कहा, ‘‘अधिक मीठा नहीं खाना चाहिए।’’
उस महिला ने कहा, ‘‘बापू! यह बात तो आप चार दिन पूर्व भी कह सकते थे।’’
बापू ने कहा, ‘‘चार दिन पूर्व तक मैं भी बहुत मीठा खाता था। पिछले चार दिनों में भोजन में मीठे की मात्रा नाम मात्र की कर ली। अब मैं किसी को मीठा कम खाने का कहने का हकदार बना हूँ।’’ मन की स्वच्छता का ही उदाहरण है।
गांधी की संपूर्ण दिनचर्या स्वच्छता पर आधारित थी। उनके आश्रम में रहनेवाले सभी स्त्री-पुरुष स्वच्छता के नियमों को अपनाते थे। अपने हाथों से साफ-सफाई करना। गांधी के बाद भी उनकी विचारधारा में चल रहे विभिन्न आश्रम और विद्यालयों में स्वयं अपने हाथों शौचालय की सफाई की जाती थी।
मुझे भी 10 वर्ष की उम्र में (1952) एक गांधीवादी विचारधारा पर संचालित आवासीय विद्यालय में पढ़ने भेजा गया। वहाँ हम लड़कियाँ बड़े मनोयोग से शौचालय की सफाई करती थीं। अपना कपड़ा, जूठे बरतन, बिस्तर, अपने कमरे की सफाई बच्चियाँ स्वयं करती थीं। पूरे परिसर में एक भी कचरे का टुकड़ा नहीं दिखता था। बचपन में डाली गई आदतें आज भी कायम हैं।
गांधी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में अपना जीवन जीते हुए कई प्रसंगों का वर्णन किया है, जब उन्हें सफाई से रहने के लिए लोगों को उत्साहित करना पड़ा। प्रारंभ में लोग मानने को तैयार नहीं थे। गांधी के जीवन का अध्ययन करने पर ऐसा लगता है कि स्वच्छता के क्षेत्र में झाड़ू लगाकर घर-आँगन बुहारने से अधिक घरों में शौचालयों का होना और उन्हें साफ-सुथरा रखने के लिए घर वालों को तैयार कराने में उन्हें बहुत मशक्कत करनी पड़ी। अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान लौटने के बाद बंबई में प्लेग के प्रकोप का वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है, ‘‘चारों ओर घबराहट फैली हुई थी। राजकोट में भी प्लेग फैलने का भय था। मैंने सोचा कि मैं स्वास्थ्य-विभाग में अवश्य काम कर सकता हूँ। मैंने अपनी सेवा राज्य को अर्पण करने के लिए पत्र लिखा। राज्य ने जो कमेटी बनाई, उसमें मुझे ले लिया। मैंने पाखानों की सफाई पर जोर दिया और कमेटी ने निश्चय किया कि गली-गली जाकर पाखानों का निरीक्षण किया जाए। गरीब लोगों ने अपने पाखानों का निरीक्षण करने देने में बिलकुल आनाकानी नहीं की, यही नहीं, बल्कि जो सुधार उन्हें सुझाए गए थे, वे भी उन्होंने कर लिये, पर जब हम राजदरबार वाले (बड़े आदमियों) घरों के निरीक्षण के लिए निकले, तो कई जगहों में तो हमें पाखाने में जाने की इजाजत भी नहीं मिलती थी, सुधार की तो बात ही क्या की जाए। हमारा साधारण अनुभव यह रहा कि धनिक समाज के पाखाने ज्यादा गंदे थे। उनमें अँधेरा, बदबू और बेहद गंदगी थी। खुड्डी पर कीड़े बिलबिलाते थे। जीते जी रोज नरक में ही प्रवेश करने जैसी स्थिति थी। हमारे सुझाए हुए सुधार बिलकुल साधारण थे। मैला जमीन पर न गिराकर कूड़े में गिराएँ। पानी की व्यवस्था ऐसी की जाए कि वह जमीन में जज्ब होने के बदले कूड़े में इकट्ठा हो। खुड्डी और भंगी के आने की जगह के बीच जो दीवार रखी जाती है, वह तोड़ दी जाए, जिससे भंगी सारी जगह को अच्छी तरह साफ कर सके, पाखाने कुछ बड़े हो जाएँ तथा उनमें हवा-रोशनी पहुँच सके।’’ बड़े (धनी) आदमियों ने इन सुधारों को स्वीकार करने में बहुत आपत्ति की और अंत में पूरे नहीं किए।
कमेटी को भंगियों की बस्ती में जाना तो था ही। कमेटी के सदस्यों में से केवल एक सदस्य मेरे साथ वहाँ जाने को तैयार हुए। भंगियों की बस्ती में जाना और वह भी पाखाने का निरीक्षण करने के लिए? पर मुझे तो भंगियों की बस्ती देखकर सानंद आश्चर्य हुआ। अपने जीवन में मैं पहली बार उस दिन भंगी बस्ती देखने गया था। भंगी भाई-बहनों को हमें देखकर आश्चर्य हुआ। हमने उनके पाखाने देखने चाहे, वे बोले, ‘‘हमारे यहाँ पाखाने कहाँ? हमारे पाखाने तो जंगल में हैं। पाखाने तो आप बड़े आदमियों के यहाँ होते हैं।’’
मैंने पूछा, ‘‘तो अपने घर हमें देखने दोगे?’’
‘‘आइए न भाई साहब! जहाँ आपका जी चाहे, जाइए। यही तो हमारे घर हैं।’’
मैं अंदर गया और घर की तथा आँगन की सफाई देखकर खुश हो गया। घर के अंदर सबकुछ लिपा-पुता देखा। आँगन झाड़ा-बुहारा और जो थोड़े से बरतन-भाँड़े थे, सब साफ और चमचमाते हुए। इस बस्ती में बीमारी फैलने का डर मुझे नहीं दिखाई दिया।
एक पाखाने का वर्णन किए बिना नहीं रह सकता। हर एक घर में नाली तो थी ही। उसमें पानी भी गिराया जाता और पेशाब भी किया जाता, अतः ऐसा कमरा शायद ही मिलता, जिसमें बदबू न हो, पर एक घर में तो सोने के कमरे में ही मोरी और पाखाना दोनों देखे तथा घर की वह सारी गंदगी नाली के रास्ते नीचे उतरती थी। उस कोठरी में खड़ा भी नहीं रहा जा सकता था। घर का मालिक उसमें कैसे सो सकता था, इसका विचार पाठक ही करें।
कमेटी ने हवेली (वैष्णव-मंदिर) का निरीक्षण भी किया। हवेली के मुखिया जी से गांधी-कुटुंब का प्रेम का संबंध था। मुखियाजी ने हवेली देखने देना और उसमें जितना सुधार हो सकता था, उतना करा देना स्वीकृत किया। उन्होंने स्वयं वह हिस्सा कभी नहीं देखा था। हवेली में रोज जो जूठन और पत्तल इकट्ठा होते, उन्हें पिछवाड़े की दीवार के ऊपर फेंक दिया जाता था और वह हिस्सा चील-कौओं का अड्डा बन गया था। पाखाने तो गंदे थे ही। मुखियाजी ने कितना सुधार किया, यह मैं न देख सका। हवेली की गंदगी देखकर दुःख तो हुआ ही। यदि हवेली को हम पवित्र स्थान, देवस्थान समझें, तो वहाँ तो स्वास्थ्य-नियमों का पूर्ण पालन होने की आशा रखी जानी चाहिए। स्मृतिकारों ने अंतरबाह्य शौच पर बहुत जोर दिया है, यह बात उस समय भी मेरे ध्यान से बाहर नहीं थी।’’ (सत्य के प्रयोग से उद्धृत)
इस प्रसंग को पढ़ने से हमें अंदाजा लगता है कि उस समय बड़े लोगों के घरों की क्या स्थिति थी और महात्मा गांधी के संज्ञान में यह बात थी कि हमारे स्मृतिकारों ने अंतर और बाह्य शौच (शुद्धता) पर काफी ध्यान दिया है, उसके बावजूद उसी समाज की स्थिति इस विषय पर बहुत खराब थी। उनकी बातों से यह भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर समाज द्वारा सत्य, अहिंसा और स्वच्छता को अपनाए जाने का आग्रह करने का ठान लिया था। आगे चलकर सभी सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक आंदोलनों में तीनों को अपनाया।
गांधी ने दक्षिण अफ्रीका का एक संस्मरण लिखा है, ‘‘समाज का एक भी अंग अनुपयोगी रहे, यह मुझे सदैव अखरा है। इसलिए दक्षिण अफ्रीका में रहनेवाले हिंदुस्तानियों पर लगाए जानेवाले आरोप को, जिसमें कुछ तथ्य थे, दूर करने की बात अपने वहाँ बसने के समय से ही सोच रखी थी। हिंदुस्तानियों पर जब-तब आरोप लगाए जाते थे कि वे अपने घर साफ नहीं रखते हैं और बहुत मैले रहते हैं। इस आरोप को दूर करने के लिए आरंभ में हिंदुस्तानियों के मुखिया माने जानेवाले लोगों के घरों में तो सुधार आरंभ हो ही चुके थे, पर घर-घर घूमने का सिलसिला तब शुरू हुआ, जब डरबन में प्लेग के प्रकोप का डर पैदा हुआ। इसमें म्युनिसिपैलिटी के अधिकारियों का भी सहयोग और सम्मति थी। हमारी सहायता मिलने से उनका काम हलका हो गया और हिंदुस्तानियों को कम कष्ट उठाने पड़े, क्योंकि साधारणतः जब प्लेग आदि का उपद्रव होता है, तब अधिकारी घबरा जाते हैं और उपायों की योजना में मर्यादा से आगे बढ़ जाते हैं। जो लोग उनकी दृष्टि में खटकते हैं, उन पर उनका दबाव असह्य हो जाता है। भारतीय समाज ने अपने-आप प्रभावकारी उपायों से काम लेना आरंभ कर दिया, इसलिए इन सख्तियों से बच गए।
मुझे कुछ कटु अनुभव भी हुए। मैंने देखा कि नेटाल सरकार से अधिकारों की माँग करने में जितनी आसानी से मैं अपने समाज की सहायता पा सकता था, उतनी आसानी से लोगों से उनके कर्तव्य पालन कराने के कार्य में सहायता प्राप्त न कर सका। कितनी ही जगह अपमान होता, कितनी ही जगह विनयपूर्वक लापरवाही दिखाई जाती। गंदगी साफ करने के लिए कष्ट उठाना उन्हें अखरता था, तब पैसा खर्च करने की तो बात ही क्या? लोगों से कुछ भी काम कराना हो तो धैर्य रखना चाहिए, यह पाठ मैंने अच्छी तरह सीख लिया। सुधार की गरज तो सुधारक की अपनी होती है। जिस समाज में वह सुधार कराना चाहता है, उससे तो उसे विरोध, तिरस्कार और प्राणों के जोखिम की भी आशा रखनी चाहिए। सुधारक जिसे सुधार मानता है, समाज उसे कुधार क्यों न माने? या कुधार न माने, तो भी उस ओर से उदासीन क्यों न रहे?
इस आंदोलन का परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज में घर-बाहर साफ रखने का महत्त्व न्यूनाधिक मात्रा में मान लिया गया। अधिकारियों की निगाह में मेरी साख बढ़ी। उन्होंने जान लिया कि मेरा पेशा केवल शिकायतें करना या अधिकार माँगना ही नहीं है, बल्कि शिकायतें करने या अधिकार माँगने में मैं जितना तत्पर हूँ, भीतरी सुधार के लिए भी मुझमें उतना ही उत्साह और तत्परता है।’’
गांधी के उपरोक्त संस्मरण से उस समय के लोगों की मनोवृत्ति का पता लगता है। उनके हित की बात करने पर भी वे नहीं करते। आज भी यही स्थिति है। तभी तो स्वच्छता अभियान जिनके लिए है, उस भारतीय समाज को जगाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ रही है।
गांधी लिखते हैं, ‘‘दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की सेवा करते हुए मैं स्वयं एक-एक करके बहुत सी बातें अनायास सीख रहा था। सत्य एक विशाल वृक्ष है। ज्यों-ज्यों सेवा की जाए, त्यों-त्यों उसमें अनेक फल आते दिखाई देते हैं। उसका अंत ही नहीं होता। जैसे-जैसे उसकी गहराई में उतरते हैं, वैसे-वैसे उसमें अधिक रत्न मिला करते हैं, सेवा के अवसर उपलब्ध होते हैं।
दक्षिण अफ्रीका में एक महामारी फैली। हिंदुस्तानियों के लिए म्युनिसिपैलिटी ने अलग जगह नहीं दी। हिंदुस्तानी उसी लोकेशन में रहे। वहाँ की गंदगी और बढ़ गई, क्योंकि वे वहाँ मालिक नहीं; किराएदार बन गए थे। किराएदार के रूप में उन्होंने वहाँ सफाई करनी छोड़ दी। उसी समय काला प्लेग फूट निकला। भाई मदनजीत ने एक खाली पड़े मकान का ताला तोड़कर उस पर कब्जा कर लिया। उसी में उन बीमारों को रखा। चार हिंदुस्तानियों ने मिलकर उनकी सेवा की। वहाँ सफाई की व्यवस्था कराई। दूसरे दिन उन्हें एक खाली गोदाम दिया गया। गांधी लिखते हैं, ‘‘मकान बहुत मैला और गंदा था। हम लोगों ने स्वयं उसे साफ किया।’’
‘सत्य के प्रयोग’ में इन प्रसंगों को पढ़कर गांधीजी के मन में सत्य, अहिंसा और स्वच्छता के प्रति आग्रह के बढ़ने की मिसाल मिलती है।
महात्मा गांधी ने बिहार के चंपारण में अपने ठहराव का वर्णन किया है। उन्हें ऐसा लगा कि चंपारण में यदि सच्चा काम करना है तो गाँव में शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। उन्होंने शिक्षा देने के लिए कुछ कम पढ़ी-लिखी महिलाओं को भी पढ़ाने के लिए तैयार किया। बहनें तैयार हो गईं। उन्होंने पाठशाला में अपनी जान डाल दी। गांधी लिखते हैं, ‘‘पर मुझे पढ़ाई के प्रबंध से ही संतोष नहीं करना था। गाँव की गंदगी की कोई सीमा नहीं थी। गलियों में कीचड़ और बदबू, आँगनों की ओर देखा नहीं जाता था। बड़ों को स्वच्छता के लिए शिक्षा देने की आवश्यकता थी। चंपारण के लोग रोगों से पीडि़त दिखाई पड़ते थे। सफाई का काम बहुत मुश्किल था। लोग गंदगी दूर करने के लिए तैयार नहीं थे। जो लोग प्रतिदिन खेत पर जाकर काम करते थे, वे भी अपने हाथ से मैला साफ करने के लिए तैयार नहीं थे। डॉ. देव तुरंत हार मानने वाले आदमी नहीं थे। उन्होंने स्वयं और स्वयंसेवकों ने एक गाँव के रास्ते साफ किए। लोगों के आँगन से कूड़ा निकाला, कुएँ के आसपास के गड्ढे भरे। कीचड़ निकाला और गाँववालों को स्वयंसेवक देने के लिए प्रेमपूर्वक समझाते रहे। मुझे याद है कि सफाई की बात सुनकर कुछ स्थानों में लोगों के मन में हमारे प्रति नफरत उत्पन्न हो गई।’
‘‘चंपारण के भीतहरवा गाँव, जहाँ हमने पाठशाला खोली थी, वहाँ कुछ बहनें आती थीं, जिनके कपड़े मैले थे। मैंने कस्तूरबा बाई से कहा कि इन्हें कपड़े साफ करने की बात समझाएँ। उनमें से एक बहन बा को अपनी झोंपड़ी में ले गई और बोली, ‘आप देखिए यहाँ कोई पेटी संदूक नहीं है, जिसमें कपड़े बंद हैं। मैंने जो पहन रखी है, बस मेरे पास यही साड़ी है। इसे मैं कैसे धोऊँ। महात्माजी से कहें कि वे कपड़े दिलवाएँ, तो मैं प्रतिदिन स्नान करूँगी और कपड़े भी बदलूँगी।’
उस बहन ने गांधी की आँखें खोल दीं। उन्होंने समझा कि साफ-सफाई के साथ व्यक्ति की आर्थिक स्थिति का भी संबंध है। बिहार में एक ओर धनाढ्यों की कमी नहीं थी तो दूसरी ओर गरीबी की पराकाष्ठा का भी उन्हें ध्यान आया। गांधी के जीवन में मितव्ययिता भी इसके कारण आई। उन्होंने सोचा कि स्वच्छता, स्वच्छता का जयघोष कर देने मात्र से लोग स्वच्छता के अभ्यासी नहीं हो जाएँगे।
गांधी के सपनों का गाँव संपूर्णतया निरोग होना चाहिए था। गांधी ने एक साधारण मकान की कल्पना की, जिसमें काफी प्रकाश आ सके। मकान के निर्माण में ऐसी चीजों का प्रयोग हो, जो पाँच मील की सीमा के अंदर उपलब्ध हों। हर मकान में इतना बड़ा आँगन हो, जिसमें साग-भाजी उपजाई जा सके और पशुओं को रखा जा सके। गाँव की गलियों और रास्ते पर धूल न हो। जरूरत के अनुसार कुएँ हों। गोचर भूमि हो, मंदिर हो, सहकारी ढंग की गौशाला। गाँव के मामूली मामलों के निपटारे के लिए ग्राम पंचायत, प्राथमिक और माध्यमिक शालाएँ। उन्होंने एक आत्म निर्भर गाँव की कल्पना की, पर दुःख भी प्रकट किया कि सबसे बड़ी बदकिस्मती तो यह है कि अपनी दशा सुधारने के लिए गाँव के लोग खुद कुछ नहीं करना चाहते।
गांधी ने लिखा, ‘‘एक गाँव के कार्यकर्ता को सबसे पहले गाँव की सफाई और आरोग्य को अपने हाथ में लेना चाहिए, जिसकी सबसे अधिक लापरवाही की जा रही है। फलतः गाँव की तंदुरुस्ती कम और रोग फैलते जा रहे हैं।’’ गांधी स्वयं अपने जीवन में भंगी बने थे। एक बार उन्होंने कांग्रेस के अधिवेशन में भी स्वयंसेवकों से भंगी का काम करवाना प्रारंभ कर दिया था। गांधी कूड़ा-करकट के निस्तारण के संबंध में कहते थे कि मैला किसानों के लिए सोना है। इन सबके पीछे गांधी का उपयोगितावादी दृष्टिकोण के साथ रचनात्मकता से भी जुड़ाव था, जिसमें स्वच्छता का विशेष महत्त्व था।
स्वराज्य की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘स्वराज्य आने पर सरकार गाँव को साफ नहीं कराएगी, बल्कि लोग उसे अपना समझकर खुद ही साफ करेंगे। उन्होंने स्वास्थ्य और स्वच्छता को अन्योन्याश्रित नहीं, बल्कि स्वच्छता का पर्याय माना। महात्मा गांधी ने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन पर इतनी गहराई से विचार किया कि समाज में विद्यमान सभी दुर्गुणों और कुरीतियों पर ध्यान ही नहीं दिया, बल्कि उनके निराकरण के भी व्यावहारिक मार्ग दिखाए। उन्होंने छुआछूत को समाज में अभिशाप की तरह फैला हुआ माना, साथ ही छुआछूत को मस्तिष्क, मन और हृदय की गंदगी के रूप में लिया। वे भारत के भविष्य को बनाना चाहते थे, पर उनका ध्यान गाँव पर ही केंद्रित था, जो साफ, स्वस्थ, आत्मनिर्भर और संपन्न तो हो ही, गंदगी और प्रदूषणमुक्त भी हो। उन्होंने आधुनिक सभ्यता और बढ़ते औद्योगीकरण का भी विरोध किया था। हम देख रहे हैं कि आज बढ़ते औद्योगिकीकरण के कारण सामाजिक दूरियाँ ही नहीं, बल्कि खाइयाँ भी बढ़ रही हैं। तकनीकी के अधिक उपयोग से भी मनुष्य के व्यवहार में बहुत दोष आए हैं। इससे मन की अशुद्धता भी बढ़ी है। गांधी का संपूर्ण जीवन शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और नैतिक शुचिता के लिए आग्रह का आईना है। विभिन्न स्थितियों में शुचिताओं का समुच्चय ही व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन है। गांधी ने बार-बार इसे स्वीकार किया कि भारत के लोग अपनी आंतरिक शुचिता और डिवाइन हथियारों से किसी से भी मुकाबला कर सकते हैं। गांधी ने शुद्धता और पवित्रता पर अधिक जोर दिया है।
उन्होंने यहाँ तक कहा कि जो व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक रूप से पवित्र है, वही ईश्वर तक पहुँच सकता है। इस प्रकार की शुद्धता भी अपने वातावरण की शुद्धता पर निर्भर करती है और यह पवित्रता, शुद्धता और कुछ नहीं, स्वच्छता है, जिसे पुनः एक बार अपनाकर देश को आर्थिक और बौद्धिक दृष्टि से उच्च शिखर पर बैठाने के लिए प्रधानमंत्री ने कमर कसी है।
स्वतंत्रता की लड़ाई में अनेकानेक विद्ववत्जनों एवं राष्ट्र भक्तों का योगदान रहा, परंतु गांधी ने तो अपनी आँखों के सामने पसरे समाज की बुराइयों से लड़ने के लिए उचित मार्ग दिखाना शुरू कर दिया। उनकी पहली मान्यता थी कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना भंगी स्वयं होना चाहिए। शौचालय की स्वच्छता स्वतंत्रता से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। गांधी के जीवन जीने के तरीकों में स्वच्छता और शौचालय दो महत्त्वपूर्ण आयाम थे।
पुनः भारत को वैचारिक दृष्टि से विश्वगुरु बनाने के लिए कटिबद्ध श्री नरेंद्र मोदी, जिन्होंने भारत के सभी महापुरुषों के व्यक्तित्व और कृतित्व का गहराई से अध्ययन कर रखा है, उन्हें जन-जन को समृद्ध, स्वस्थ, सुखी और सशक्त बनाते हुए भारत को पुनः उसकी गरिमा प्रदान करने के लिए सबसे पहले स्वच्छ बनाने की आवश्यकता महसूस हुई। यह सच है कि उनकी प्रेरणा के लिए गांधी से बढ़कर कोई महापुरुष नहीं हो सकते थे। स्वच्छता के प्रति कटिबद्ध गांधी का विश्वास था कि भारत स्वतंत्र होगा। यहाँ स्वराज्य आएगा, सुराज आएगा। लोग स्वदेशी अपनाएँगे। सबसे पहले भारत को स्वच्छ देश बनाना होगा। उनका सपना अधूरा रह गया था। विश्वास किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लिया गया अभियान 2019 तक सफल होगा।
किसी भी संकल्प के पूर्ण होने पर यजमान को आशीर्वाद मिलता है। यजमान की मनोकामना पूर्ण होती है। यज्ञ में पूर्णाहुति करते हुए भी यजमान का मन अपूर्ण रह जाता है। वह एक संकल्प की पूर्ति से प्रेरणा लेकर दूसरा संकल्प लेता है। देश और समाज को यह विश्वास करना चाहिए कि प्रधानमंत्री द्वारा संचालित इस स्वच्छता यज्ञ की भी पूर्णाहुति होगी। पुनः देश के विकास के एक महत्त्वपूर्ण आयाम के लिए नया संकल्प लिया जाएगा, परंतु यह सब तभी संभव है, जब देश का एक-एक व्यक्ति इस यज्ञ में तन-मन और धन से आहुति देगा। प्रधानमंत्री ने पुस्तकों से पढ़कर गांधी के सपनों को अपनी आँखों में उतारा है। भारतीय नागरिकों को नरेंद्र मोदी की आँखों में आए सपनों को अपनी आँखों में उतारना होगा। तभी यह अभियान दीर्घायु होकर समाज के आचरण में स्थायी रूप से ढल जाएगा। गांधी की आत्मा को शांति मिलेगी ही, समाज भी स्वस्थ, समृद्ध और सुखी होगा।
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नोटःइस आलेख को उपलब्ध कराने के लिए प्रभात प्रकाशन को आभार प्रकट करते हैं।
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