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देश को ब्रांड नहीं, जनऔषधि की है जरूरत

जेनरिक एवं जेनरिक ब्रांडेड दवाइयों को लेकर भी मीडिया में खूब चर्चा हो रही है।  जेनरिक दवाइयों की गुणवत्ता को कटघरे में लाने की भरपुर कोशिश की जा रही है। इसके पीछे जरूरी कारण भी है। भारत के घरेलु दवा बाजार का सालाना टर्नओवर 1 लाख करोड़ रुपये के आंकड़े को भी पार कर चुका है। इतने बड़े बाजार को गर कोई चुनौती देगा तो उसे अपनी जगह बनाने में समस्याओं का सामना तो करना ही पड़ेगा

आशुतोष कुमार सिंह
भारत में राजनीति करने के मानक बदल रहे हैं। जाति,धर्म एवं रंग-रूप से ऊपर, विकास के मुद्दे प्रबल होते हुए दिख रहे हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है कि सरकार अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर इतनी सजग एवं सतर्क है। सरकार के सभी मंत्री अपनी मंत्रालय के रिपोर्ट-कार्ड के साथ आम-जन के बीच में हैं। खुद देश के प्रधानमंत्री अपनी योजनाओं का जायजा लेने के लिए मैदान में आ खड़े हुए हैं। प्रधानमंत्री की सक्रीयता का असर अब कई विभागों पर भी देखने को मिल रहा है। प्रधानमंत्री की सबसे महत्वाकांक्षी योजना प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना के आला-अधिकारी भी अब फिल्ड में दिखने लगे हैं।
प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना की अगर बात करें तो ऐसा पहली बार हो रहा है कि पीएमबीजेपी के टॉप मॉस्ट अधिकारी जनऔषधि संचालकों से मिल रहे हैं। उन्हें सेमिनार में बुलाया जा रहा है। उनकी समस्याएं सुनी जा रही हैं। ऐसा पहले नहीं देखने को मिल रहा था। जनऔषधि संचालकों को राम-भरोसे छोड़ दिया गया था। चिकित्सकों से इस योजना के बारे में चर्चा नहीं की जा रही थी। लेकिन अब आम लोग से लेकर चिकित्सक, फार्मासिस्ट, सामाजिक कार्यकर्ता सभी को इस योजना से जोड़ा जा रहा है। और इस योजना को सफल बनाने की सार्थक कोशिश की जा  रही है। पिछले महीने 20 जुलाई को गुजरात के सूरत में जनऔषधि को लेकर पीएमबीजेपी ने एक सेमिनार आयोजित किया था। इस सेमिनार से चिकित्सकों के मन में जेनरिक दवाइयों को लेकर व्याप्त भ्रम तो दूर हुआ ही साथ ही जनऔषधि संचालकों को काम करने की एक नई ऊर्जा भी मिली।
लोगों की सेहत को लेकर सरकार की सक्रियता का अंदाजा प्रधानमंत्री के बयानों एवं क्रियाशीलता से भी लगाया जा सकता है। इसी कड़ी में पिछले 7 जून, 2018 को प्रधानमंत्री ने वीडियो ब्रीज के माध्यम से ‘सेहत की बात पीएम के साथ’ कार्यक्रम के अंतर्गत उन लोगों से बातचीत की जिन्हें सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं से लाभ हुआ है। सरकार के इस पहल को अंतिम जन तक पहुंचने की सार्थक कोशिश कहा जा सकता है। सिर्फ स्वास्थ्य के मुद्दे पर लाभान्वितों से देश का प्रधानमंत्री बात करे, ऐसा शायद पहली बार ही हुआ है। तकरीबन 47 मिनट तक दिए अपने संबोधन एवं बातचीत में प्रधानमंत्री ने उन सभी पहलों का जिक्र किया, जिसे उनकी सरकार ने पिछले 48 महीनों में लागू किया है। स्वच्छ भारत अभियान, पोषण अभियान, इन्द्रधनुष अभियान, आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना, मेडिकल सीटों की बढ़ोत्तरी, एम्स का निर्माण, अंतरराष्ट्रीय योग दिवस, आयुष को बढ़ावा देने जैसी बातों से लेकर दवाइयों की कीमतों में हुई कमी तक तमाम बिन्दुओं पर उन्होंने अपनी बात रखी।
सरकारी तंत्र स्वास्थ्य के मसले पर कितना गंभीर है इसका उदाहरण उस समय देखने को मिला जब जनऔषधि केन्द्रों की संख्या 5000 किए जाने की वकालत प्रधानमंत्री ने की और इस बात के ठीक से एक घंटे भी नहीं बीते होंगे कि रसायन एवं उर्वरक राज्य मंत्री मनसुख भाई मांडविया ने ट्वीट कर के यह सूचना दी कि प्रधानमंत्री के सपने को रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय जल्द पूर्ण करेगा। इस बीच नया ट्रेंड यह भी देखने को मिल रहा है कि स्वास्थ्य संबंधी प्रधानमंत्री की बातों को सरकार के सभी मंत्री प्रमुखता से अपने ट्वीटर हैंडल से साझा कर रहे हैं। इसे एक अच्छी परिपाटी कहा जा सकता है। इससे लोगों तक सरकारी योजनाओं की जानकारी पहुंचाने में बहुत मदद मिलेगी।स्वास्थ्य के जानकारों की माने तो पहले की सरकार अपनी योजनाओं को लेकर इस स्तर तक मिशन मोड में कभी नहीं रहती थी।
इस  बीच में जेनरिक एवं जेनरिक ब्रांडेड दवाइयों को लेकर भी मीडिया में खूब चर्चा हो रही है।  जेनरिक दवाइयों की गुणवत्ता को कटघरे में लाने की भरपुर कोशिश की जा रही है। इसके पीछे जरूरी कारण भी है। भारत के घरेलु दवा बाजार का सालाना टर्नओवर 1 लाख करोड़ रुपये के आंकड़े को भी पार कर चुका है। इतने बड़े बाजार को गर कोई चुनौती देगा तो उसे अपनी जगह बनाने में समस्याओं का सामना तो करना ही पड़ेगा। इस तरह की समस्या प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना के तहत जनऔषधि केन्द्र संचालन में भी आ रही है। इस योजना के तहत सरकार बाजार मूल्य से 80 फीसद तक कम मूल्य पर  उच्च गुणवत्ता की जेनरिक दवाइयां आम लोगों को उपलब्ध करवा रही है। ऐसे में जब 100 रुपये की दवा 20 रुपये में मिलेगी तो कोई भी सस्ती दवा की ओर ही जायेगा। और इसका सीधे नुक्सान उस बाजार को हो रहा है जो सूरसा की तरह बढ़ता ही जा रहा है।
यहां यह समझना भी जरूरी है कि जिस कथित रुप से ब्रांडेड दवा का सपोर्ट देश के चिकित्सक, एमआर एवं बड़े-बड़े फार्मा एक्सपर्ट करते आ रहे हैं क्या वह वास्तव में फस्ट हैंड यानी ब्रांडेड है या उसे ब्रांडेड बनाया गया है। भारत में जितनी दवाइयां बेची जा रही हैं उसमें ज्यादातर जेनरिक ही हैं और उन्हें ब्रांड के रूप में हमें परोसा जा रहा है। जेनरिक से ब्रांड बनने की प्रक्रिया में इन दवाइयों की कीमते 1000 से 1500 फीसद तक  बढ़ा दी जाती है। ऐसे में यहां सोचने वाली बात यह है कि इस देश को दवा की जरूरत है ब्रांडेड बना दी गई दवा की। सन् 2012 में संसद में सरकार ने माना था कि फार्मा कंपनियां1100 फीसद तक का मुनाफा कमा रही हैं। लेकिन इस मुनाफे को कम करने का कारगर कदम नहीं उठाया गया। उल्टे में यूपीए सरकार ने  इस लूट को सरकारी जमा पहनाते हुए ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर 2013 को लागू कर दिया। इस ऑर्डर में दवाइयों की कीमत तय करने के फार्मुले को बाजार आधारित कर दिया गया। नई सरकार भी बीते चार वर्षों में उस गलती को सुधार नहीं पाई हैं। हालांकि जनऔषधि के प्रसार ने दवा बाजार को कड़ी टक्कर दी है। इससे यह उम्मीद तो की जा सकती है कि बाजार दवाइयों की कीमतों को और कम करेगा। यहां एक सवाल और भी है जब भारत सरकार द्वारा बनवाई जा रही जनऔषधि की दवाइयों की कीमते इतनी कम है तो बाकी कंपनियां अपनी कीमतों को जनऔषधि के आस-पास क्यों नहीं रख सकती? जरूर रख सकती हैं लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी ब्रांडिंग पर किए जाने वाले खर्च को कम करना होगा।
जहां तक दवाइयों की गुणवत्ता का सवाल है तो अगर सरकार किसी कंपनी को दवा बनाने के लिए लाइसेंस दी है। इंडियन फार्मा कॉपी के हिसाब से वह दवा बन रही है। डब्ल्यूएचओ के उन मानको को पूरा कर रही है, जिसे किसी भी फार्मा मैन्यूफैक्चरर को करना होता है तो फिर दवा की गुणवत्ता कमजोर कैसे हो गई? जिस फार्मा कंपनी से बड़ी-बड़ी कंपनियां अपनी दवा बनवा कर अपनी कंपनी के मार्केंटिंग का लेबल लगवा रही हैं वह दवा सही और उन्हीं फार्मा कंपनियों से उन्हीं मानको पर सरकार दवा बनवा रही है तो वह खराब। यह कैसे संभव है?  पिछले दिनों जनऔषधि की दवाइयों की गुणवत्ता को लेकर दवा वापस भेजने की खबर एक अखबार में छपी थी। इस खबर को तो सकारात्मकता के साथ लेना चाहिए कि अगर जनऔषधि के लिए बन रही किसी दवा के किसी बैच का सैंपल मानको पर नहीं उतर रहा है तो उसे बाजार से वापस मंगवा लिया जा रहा है।  इसका मतलब तो यह हुआ कि जनऔषधि अपनी दवाइयों की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं कर रही है। दूसरी तरफ सच्चाई यह है कि फार्मा इंडस्ट्री में दवाइयों को वापस लेना एक आम प्रक्रिया है।
जेनरिक दवा और ब्रांडेड को लेकर जो भ्रम पैदा किया जा रहा है, उसे भी समझने की जरूरत है। पेंटेंट मुक्त मेडिसिन को जेनरिक मेडिसिन कहा जाता है। इस तरह से भारत में बिकने वाली अधिकतर दवाइयां पेटेंट फ्री हो चुकी हैं और उसे कोई भी कंपनी बनाकर बेच सकती है। इसी का फायदा उठाकर देश के दिग्गज कंपनियां अपने ब्रांड नेम के साथ दवाइयों को मार्केट में उतार रही हैं और उसकी जमकर मार्केटिंग कर रही हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि पहले दवा बनती हैं, बाद में उसे ब्रांड बनाया जाता है। ऐसे में अगर सरकार लोगों को जनऔषधि के माध्यम से सस्ती दवाइयां उपलब्ध कराने की कोशिश कर रही है तो क्या बुरा कर रही है? देश भर 612 जिलों में 3800 के आसपास जनऔषधि की दुकाने खुल चुकी हैं। जनऔषधि को लेकर लेकर भ्रम फैलाना बंद होना चाहिए। और इस जनसरोकारी काम को आगे बढ़ाने के लिए देश की जनता, देश चिकित्सक एवं फार्मासिस्टों को आगे आना चाहिए। ताकि महंगी दवाइयों के कारण गरीबी रेखा से नहीं ऊबर पा रहे देश की 3 फीसद आबादी को इस रेखा से ऊपर लाया जा सके।

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