नई दिल्ली/ 01.12.2015
आरटीआई कार्यकर्ता से स्वास्थ्य कार्यकर्ता बने विनय कुमार भारती ने झारखंड के सुदुर क्षेत्रों में एड्स जागरूकता अभियान के अंतर्गत काम किया है। अपने काम के दौरान उन्होंने जो देखा, जो समझा उसे वो अपने इस लेख के माध्यम से साझा कर रहे हैं। श्री भारती का यह लेख एड्स के बढ़ते बाजार के कारणों पर से पर्दा उठा रहा है…यह उनका भोगा हुआ सच है। उनके अनुभव से आप पाठकों को कुछ फायदा मिल सके यही सोच कर इस आलेख को हम प्रस्तुत कर रहे हैं। संपादक
आज विश्व एड्स दिवस है। आज कोशिश करता हूँ कि अपने अनुभव साझा करूँ। झारखण्ड में एड्स जागरूकता हेतु चलाये जा रहे कार्यक्रम के सिलसिले में काफी लोगों से मिलना-जुलना हुआ। एड्स विक्टिम से लेकर कार्यक्रम को संचालित करने वाले सरकारी अफसरों को करीब से समझने का मौका मिला। एक बात जो समझ में आई वह यह कि यहाँ भी भ्रष्टाचार चरम पर है। बात जिले या राज्यों तक सिमित नहीं है बल्कि यहां तो बॉउंड्री पार भी खेल होता है। हर इंसान अपने कर्मों का हिसाब लगाता है। एक दिन जब मैं अपने कर्मों का हिसाब लगाने बैठा तो अपने आप में कुछ ऐसा महसूस हुआ मानो मैं भी उस भीड़ का हिस्सा बनता जा रहा हूँ। जिस हिसाब से राष्ट्रीय स्तर पर एड्स का आंकड़ा दिखाया जाता है उसकी प्रमाणिकता आखिर क्या है? भारत में एड्स के वास्तविक आंकड़े किस आधार पर बनाये गए हैं? यह एक बड़ा सवाल है। एड्स के नाम पर डराकर जो खेल करोड़ों- अरबों डॉलर का चल रहा है, उसके पीछे का सच न तो किसी ने कुरेदा… न ही जानने की कोशिश की। आखिर क्यों एड्स को जरुरत से ज्यादा प्रचारित किया जा रहा है ? आखिर क्यों पैसे पानी की तरह बहाये जा रहे है? दूसरी कई बीमारियां ऐसी हैं जो एचआईवी / एड्स से ज्यादा खतरनाक हैं (खतरनाक कहने का आसय अन्य बीमारियों के होने वाली मौतों से है)
जग जाहिर है की वर्ल्ड बैंक, डब्लूएचओ, USAIDS जैसी इंटरनेशनल संस्थाएं एड्स को लेकर अनुदान देती हैं। जो कई बिलियन डॉलर का है। भारत सरकार का एक पैसा भी एड्स भगाओ कार्यक्रम में नहीं लगा। काम के दौरान बड़े IAS अधिकारीयों से सच जानने की कोशिश करने लगा। जल्द ही सच्चाई पता चल गई। पहले कागज़ी खेल अच्छी तरह समझा… चूँकि जिले स्तर पर कार्यक्रम प्रबंधक था और फ़र्ज़ी आंकड़े बनाना सरकार की मांग थी। अगर जांच में एक भी पॉजिटिव ना हो तो कार्यक्रम बंद होने का खतरा मंडराता रहता। 35 से 55 हज़ार तक की सैलरी उठा रहे मैनेजरों की रोज़ी रोटी का संकट खड़ा हो रहा था। मैं भी कही ना कही उसी कतार में शामिल हो गया था। एक समय ऐसा आया की दफ्तर में कोई काम नहीं रह गया। बस महीने के अंत में वॉलेंटियर से सर्वे रिपोर्ट व लैब टेंस्टिंग रिपोर्ट ( पूर्णतः फ़र्ज़ी ) कलेक्ट कर फाइनल रिपोर्ट जो आँख मूंद कर सरकारी टेलीफोनिक आदेश पर बनाये जाने थे, बन कर तैयार रहते। एक चीज़ बढ़िया थी की सैलरी कमबख्त समय पर आती। करीबी मामला था सबकुछ सामने हो रहा था। मेरे लिए यह इस बात का प्रमाण था की काम चाहे कागज़ी हो, यहाँ अकाउंट अप टू डेट होता है…चूँकि तबा तोड़ खर्चे दिखाने होते, इसलिए झटपट सेटल करना होता है। कई बार तो एड्स कंट्रोल के मुख्यालय से वर्किंग रिपोर्ट से पहले स्टेटमेंट ऑफ़ अकाउंट (SOE) मांगी जाती। अगर काम काज का हिसाब लंबित भी रहे, तो चलता रहे। आंकड़े ही बनाने थे… तो हम बनाये या वे… सारे डाटा एक्सेल सीट में ही बनने थे। दो मिनट का काम है दस का बीस या बीस का तीस। कंप्यूटर का इस्तेमाल जोरदार तरीके से हो रहा था। ऐसा नहीं है कि केवल आंकड़े बढ़ाने ही है, चूँकि पैसा देने वाली संस्थाएं वर्ल्ड बैंक, डब्लूएचओ, मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन और भी कई अन्य काम की समीक्षा भी करती हैं। ऐसे में काम दिखाने का दबाव तो था ही। कभी-कभी आंकड़े कहीं कहीं कम भी बनाये जाते। मेट्रो सिटी में संक्रमण का खतरा ज्यादा होता है पर इसका मतलब नहीं की राह चलते आदमी की एड्स की जांच शुरू कर दी जाए या जबरन कंडोम बांटा जाने लगे।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता की भारत जैसे देश में एचआईवी / एड्स की स्थिति सामान्य है पर स्थिति आउट ऑफ़ कंट्रोल है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। कई ऐसी भी बीमारियां है जो एड्स से ज्यादा जान लेती है। आज कुपोषण से सबसे ज्यादा बच्चे मर रहे हैं। कई ऐसा गावं भी है जहाँ मात्र मलेरिया के कारण लोग मर जाते हैं। पिछले साल सबसे ज्यादा मौत टीबी से हुई। स्वस्थ भारत अभियान के राष्ट्रीय संयोजक आशुतोष जी अक्सर कहते हैं कुछ बीमारियां पोलिटिकल होती हैं… कुछ ब्रांडेड ऐसे में एचआईवी / एड्स को तो कॉमर्शियल बीमारी कहना ही ठीक होगा। फ़िलहाल इतना ही ज़िन्दगी ज़िंदाबाद !!
(विनय कुमार भारती)
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(* ऊपर लिखे बिचार लेखक के अपने विचार है)
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1 comment
एड्स के नाम पर लाखों करोड़ो का गोलमाल हैं भाई.. बहती गंगा में हाथ धोने की होड़ मची हुई हैं,ऐसे में रियल वर्क को अनदेखा किया जा रहा है जोकि समाज के लिए घातक होगा…